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________________ करता है यह मानेंगे तो भी संभव नहीं है । कारण शुद्धि राग-द्वेषादि के अभाव में होती है। और रागादि के अभाव में इच्छा सिद्ध नहीं होगी। यदि इच्छा सिद्ध नहीं होती है तो इच्छा के अभाव में सृष्टि संभव नहीं है। अब क्या करेंगे ? इच्छा मानते हैं तो रागादि युक्त सकर्म ईश्वर मानना पड़ेगा और नहीं मानते हैं तो सृष्टि रचना में बाधा आएगी । ‘इतो व्याघ्रस्ततो तटी' जैसी स्थिति से छूटना मुश्किल है। अतः ईश्वर के ऊपर सृष्टि कर्तृत्व का बोझ डालकर ईश्वर का स्वरूप विकृत करने का कुकर्म न करें इसी में हमारी सज्जनता है। करुणा में दोष : - बुद्धिमानों की प्रवृत्ति प्रयोजन अथवा करुणा बुद्धिपूर्वक ही होती है। अतः यहां प्रश्न होता है कि ईश्वर स्वार्थ से सृष्टि निर्माण में प्रवृत्त होता है या करुणावृत्ति से? स्वार्थ अथवा प्रयोजन मानें तो वह ईश्वर में कैसे घटेगी? चूंकि ईश्वर तो कृतकृत्य है। कृतकृत्य ईश्वर का प्रयोजन या स्वार्थ भी कैसे संभव हो सकता है? स्वार्थी कहना ईश्वर की ज्यादा विडंबना करने जैसी बात होगी। अच्छा यदि करुणा बुद्धि से माने तो भी संभव नहीं है। क्योंकि दुःखों को दूर करने की इच्छा को करुणा कहते हैं। यह करुणा की व्याख्या गलत तो नहीं है। जबकि सृष्टि रचना के पहले जीवों के इन्द्रियां, शरीर और विषयादि नहीं थे तो फिर जीवों के दुःख ही कहां था? और जब दुःख ही नहीं था तो फिर किस दुःख को दूर करने की करुणा ईश्वर में उत्पन्न हुई? फिर आप यह कैसे कह सकते हैं कि करुणा प्रेरक इच्छा से प्रेरित होकर ईश्वर ने सृष्टि बनाई? । _ अच्छा, यदि आप ऐसा कहो कि सृष्टि रचना करने के बाद दुःखी जीवों को देख कर ईश्वर में करुणा का भाव उत्पन्न हुआ, तो क्या यह इतरेतराश्रय दोष नहीं कहलाएगा? ईश्वर दुःखी जीवों को बनाए और फिर उन पर करुणा जगाए। उस करुणा से अनुग्रह करे। अरे भगवान् ! ऐसी समुद्री प्रदक्षिणा से क्या लाभ? इसकी अपेक्षा तो आप सृष्टि निर्माण करने का पक्ष ही न स्वीकारो तो क्या आपत्ति है? करुणा से जगत् की रचना और जगत् रचना से पुनः करुणा ऐसा यदि दोषयुक्त भी मानोगे तो अंड़े-मुर्गी की तरह यह क्रम सदा ही चलता रहेगा। इसका अन्त ही नहीं आएगा। करुणा से जगत्, जगत् से पुनः करुणा, पुनः करुणा से जगत् रचना, पुनः करुणा पुनः जगत् । इस तरह सदा की करुणा और सदा ही जगत् की रचना चलती ही रहेगी। अच्छा यह बात यदि आपको आपकी पक्ष पुष्टि की लगेभी सही परन्तु सदा ही करुणा और सदा ही जगत् रचना यदि चलती ही रहेगी तो ईश्वर संहार-प्रलय कब करेगा? या तो आपको दोनों में से एक पक्ष स्वीकारना पडेगा। परंतु सष्टि ही नहीं बनी होगी तो संहार किसका करेगा ? सृष्टि की रचना ही सिद्ध नहीं हो रही है तो संहारप्रलय की बात किसकी करें? कर्म की गति नयारी ८४
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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