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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र फैलाए । यानी शास्त्रकार अशुभ पदार्थों के प्रति रोष करने, द्वेष करने, चिढ़ने या घृणा करने, ठुकराने या छेदन-भेदन करने आदि से आत्मा को बचाने का निर्देश करते हैं'भिदिएण सायि रसाई अमणुन्नपावकाई. बहुदुभिधाई तित्तकयकसायअंबिलरससडनीरसाई " 'अमणुन पावकेसु न ते रूसियव्वं " इन सूत्रपंक्तियों का अर्थ पहले मूलार्थ एवं पदार्थान्वय में हम स्पष्ट कर आए हैं । यहाँ तो केवल उनका संक्षिप्त विश्लेषण ही पर्याप्त है, सो ऊपर किया जा चुका है । समणेण ८५८ fron यह है कि अपरिग्रही साधक जिह्वेन्द्रिय के साथ नीरस, रुक्ष, अमनोज्ञ पदार्थों का सम्पर्क होने पर यही सोचे कि ये सब वस्तुएँ या रस नाशवान हैं, पुद्गल के खेल हैं, इनके मिलने पर असंतोष या रोष व्यक्त करना ठीक नहीं । ये स्वादिष्ट पदार्थ भी पेट में जा कर तो विकृत बन जाते हैं। फिर इन विकृत पदार्थों से मुझे क्यों घबराना चाहिए ! मतलब यह है कि साधु को अपना मन इतना साध लेना होगा कि मनोजसरस, स्वादिष्ट रस जीभ पर पड़ते ही वह बहक न जाय और अमनोज्ञ एवं नीरस पदार्थ के मिलते ही वह बौखला न उठे । विविध वस्तुओं का यथार्थ स्वरूप जान कर उनकी सरसता या नीरसता का अपने मन पर अधिकार न होने दे; अपने मन को जरा भी उनसे प्रभावित न होने दे । इसी में उसकी जीत है । अन्यथा, साधक सरस स्वादिष्ट भोजन या पेय पदार्थ पा कर अपने मन पर रागभाव का असर होने देगा तो उसकी संयम साधना चौपट हो जायगी । इसी प्रकार अमनोज्ञ नीरस भोज्य या पेय पदार्थ पा कर यदि वह मन को द्वेषभाव से लिप्त कर देगा तो भी उसका अन्तरंगपरिग्रहमुक्ति का अब तक का प्रयत्न नष्ट हो जाएगा । उसकी आत्मा की पुद्गलों से जबर्दस्त हार होगी । अतः जीत इसी में है कि शुभ या अशुभ रसों को जिह्वेन्द्रियगोचर होते ही या होने से पहले ही मन पर उनका असर न होने दे; वचन से उनकी प्रतिक्रिया व्यक्त न होने दे तथा शरीरचेष्टा से भी उन रसों का प्रभाव व्यक्त न होने दे । अर्थात् किसी भी प्रिय-या अप्रिय रस को पा कर मन को निश्चेष्ट बना दे, वाणी को उसकी प्रतिक्रिया प्रगट करने में मूक बना दे और काया को भी उसके प्रभाव से शून्य बना दे। तभी अपरिग्रही साधक की विजय होगी । वह शुभ या अशुभ रसों के मिलने पर समभाव में स्थित होकर जितेन्द्रिय और स्थितप्रज्ञ बन जायगा । और अपनी आत्मा को अन्तरंगपरिग्रह से मुक्त रख कर आत्मा में स्थित हो जायगा । · स्पर्शनेन्द्रियसंवरभावना का चिन्तन, प्रयोग और फल - अपनी दिनचर्या में प्रवृत्त होते समय प्रतिदिन साधक की त्वचा से ठंडे, गर्म, हलके, भारी, खुर्दरे, कोमल
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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