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________________ ९४८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र कार्यकाल में किसी न किसी इन्द्रिय के विषय का ही चिन्तन-मनन करेगा। तब सवाल यह उठता है कि इधर इन्द्रियों या मन के जरिये साधक के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विविध विषय परिग्रह कहलाएंगे और उधर अपरिग्रह के प्रति कृतप्रतिज्ञ साधु को परिग्रह का त्याग करना अनिवार्य है। तब यह गुत्थी कैसे सुलझे ? इसके लिए भगवान महावीर ने एक सुलभ और सीधा रास्ता बताया है कि साधक को अपने जीवन में अनिवार्य विषयों का ग्रहण तो करना ही होगा, लेकिन उस समय दो तरह का विवेक उसे करना होगा पहला यह कि जो विषय या विषय के अनुरूप साधन साधुजीवन के लिए अनिवार्य आवश्यक नहीं हैं, उन्हें चला कर ग्रहण न करना । दूसरा विवेक यह करना होगा कि न चाहते हुए भी साधु के सामने जब मनोज्ञ विषय या विषय के अनुकूल मनोज्ञ पदार्थ अनायास ही सामने आ जांय या प्राप्त हो जाय तो वह उनके प्रति राग, मोह. लालसा, गृद्धि, कामना, स्मरण, मनन, या आकांक्षा न करे । और जब अमनोज्ञ विषय या विषयानुरूप अमनोज्ञ बुरे पदार्थ अनायास ही सामने आ जाय या प्राप्त हो जांय तो उस समय रोष, द्वेष, विरोध, डांट-फटकार, तिरस्कार, अवज्ञा, घृणा, जुगुप्सा आदि दुर्भाव मन में न लाए। बस, यही विषयों को ग्रहण करते हुए भी अपरिग्रही रहने की कुंजी है। उत्तराध्ययन सूत्र के ३२ वें अध्ययन में इस विषय में बहुत ही सुन्दररूप से मार्गदर्शन मिलता है । देखिये, एक गाथा में उसका निचोड़ 'जे सह-रूव-रस-गंधमागए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गेही पओसं न करेज्ज पंडिए, स होति दंते विरए अकिंचणे ॥' अर्थात्-जो साधु अनायासप्राप्त मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को पा कर गृद्धि (आसक्ति) नहीं करता; और अमनोज्ञ पापजन्य अशुभ शब्दादि को पा कर प्रद्वंष नहीं करता; वही वास्तव में विरत है, पण्डित है, दान्त है और अकिंचन (अपरिग्रही) है। यह है, अपरिग्रह और परिग्रह के विवेक की कुंजी । यदि साधक परिग्रहरूप विषयों को मन से ग्रहण करता है तो वह अन्तरंग परिग्रही बन जाता है, और यदि वह ग्रहण नहीं करता है तो उसका जीवन चल नहीं सकता। ऐसी दशा में शास्त्रकार कहते हैं कि विषय अपने-आप में अच्छे या बुरे नहीं हैं। साधक की दृष्टि में ही जब राग और द्वेष का जहर होता है तो वे विषय अनुकूल हों या प्रतिकूल, साधक के लिए आवश्यक हों या अनावश्यक, उसके लिए अन्तरंग परिग्रह बन जाते हैं । इसलिए विषयों को छोड़ना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना विषयों के साथ लगे हुए राग और द्वेष को छोड़ना जरूरी है, महत्त्वपूर्ण है। भगवद्गीता में भी इसी बात की पुष्टि की है
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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