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________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ८०६ सव्वफाससहे) पृथ्वी की तरह सब प्रकार के शुभ-अशुभ स्पर्शों को सहने वाला है, (तवसा वि य भासरासि-छन्निव्व जाततेए) तपस्या से अन्तरंग में ऐसा देदीप्यमान लगता है, मानो भस्मराशि से ढकी हुई आग हो; (जलिययासणो विव तेयसा जलंते) जलती हुई आग के समान तेज से जाज्वल्यमान है, (गोसीसचंदणमिव सीयले) गोशीर्ष चन्दन के तुल्य शीतल (य) और (सुगंध य) अपने शोल से सुगन्धित है, (हरयोविव समियभावो) ह्रद-बड़े तालाब के समान शान्त स्वभावी है, (उग्घोसियसुनिम्मलं व आयंसमंडलतलं) अच्छी तरह घिस कर चमकाए हुए निर्मल दर्पणमंडल के तल के समान (पागडभावेण) सहज स्वभाव से मायारहित होने के कारण अत्यन्त प्रमाणित व निर्मल जीवन वाला है, (सुद्धभावे) शुद्ध परिणाम वाला है, (कुंजरोव्व सोंडीरे) कर्मशत्रुओं की सेना को पराजित करने में हाथी की तरह शूरवीर है, (वसभोव्व जायथामे) वृषभ की तरह अंगीकृत व्रतों का भार धारण करने में समर्थ है, (सीहे वा जहा मिगाहिवे होति दुप्पधरिसे) जैसे मृगाधिपति सिंह अकेला ही अजेय होता है, वैसा ही अजय; (सारयसलिलं व सुखहियए) शरदऋतु के पानी की तरह स्वच्छ हृदय वाला, (भारंडे चेव अप्पमत्ते) भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त, (खग्गिविसाणं व एगजाते) गेंडे के सींग की तरह अकेला, अन्य सहायक से रहित (खाणु चेव उड्ढकाए) ठूठ की तरह ऊर्ध्वकाय-कायोत्सर्गस्थित रहने वाला, (सुन्नागारेव्व अप्पडिकम्मे) सूने घर के समान शरीरसंस्कारों से रहित (सुन्नागारावणस्संतो) सूने घर तथा सूनी दूकान के अंदर (निवायसरणप्पदीपज्झाणमिव निप्पकंपे) वायुरहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान तथा शुभध्यान के समान दिव्यादि उपसर्ग के समय भी कम्पनरहित, (जहा खुरो चेव एगधारे) छुरे या उस्तरे की जैसे एक सरीखी धार होती है, वैसे ही मुनि भी उत्सर्गमार्ग में एक धारा-अखंड प्रवृत्ति वाला (जहा अही चेव एगदिट्ठी) जैसे सांप को दृष्टि एक लक्ष्य की ओर होती है, वैसे ही मोक्षमार्ग की साधना पर एकमात्र दृष्टिवाला साधु, (आगासं चेव निरालंबे) आकाश की तरह आलम्बनरहित, (विहगेविव सव्वओ विप्पमुक्के) पक्षी की तरह सब तरह से परिग्रहमुक्त (कयपरनिलए जहा चेव उरगे) सर्प के समान दूसरे के बनाए स्थान में निवास करने वाला; (अनिलोव्व अपडिबद्ध) वायु की तरह द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के प्रतिबन्ध से रहित, (जीवोव्व अप्पडिहयगती) देहरहित जीव की तरह स्वतंत्र अप्रतिहत-बेरोकटोक गतिवाला-निरंतर विहार करने वाला मुनि (गामे गामे एगरायं) प्रत्येक गांव में एक रात (य) तथा (नगरे नगरे पंचरायं) प्रत्येक नगर में पांच रात (दुइज्जतो) विचरण करता हुआ (य) और (जितिंदिए) इन्द्रियविजयी, (जितपरिसहे) परिषह
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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