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________________ ३६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र देता है । अथवा पापरूप उत्कट लोभ का कारण होने से भी प्राणिवध का एक नाम 'पापलोभ' भी हो सकता है । कहा भी है—'लोभ पाप का बाप बखाना' । धन के उत्कृष्ट लोभी धन के लोभ में पागल होकर दूसरों का गला काटते, दूसरों को मार डालते या शोषण करते देर नहीं लगाते । राज्यलोभी राजा लोग अकारण ही दूसरे राज्य पर आक्रमण करते हैं, इसी प्रकार पदप्रतिष्ठालोभी मानव भी मंत्री आदि पद को प्राप्त करने या अधिकार पाने की धुन में दूसरों को खत्म कराने, तोड़फोड़ या दंगे कराकर हजारों के प्राण खतरे में डालने से नहीं चूकते । यही कारण है, कि जितने भी हिंसा के कार्य दिखाई देते हैं, उनके पीछे लोभ–उत्कृष्ट लोभ की ही प्रेरणा होती है। इसलिए पापरूप उत्कट लोभ को प्राणिवध का सगा भाई कहें, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । अथवा इसका पाठान्तर 'पापलः' भी मिलता है, जिसका अर्थ है-पापों को लाने वाला । यह भी ठीक नाम है, इसका। __ २१-छविच्छेद–छवि यानी शरीर का छेदन करना—काटना छविच्छेद है। शरीर को काट डालना भी प्राणवधरूप होने से प्राणवध का पर्यायवाची है। अथवा इसका अर्थ छवि यानी अंगोपांगों का छेदन करना भी है। प्राणियों के अंगोपांगों को अपने मौजशोक के लिए काट डालना भी उनके लिए बहुत पीडादायी होता है । कई बार राजा लोग अपने सत्ता के मद में आकर गुलामों के अंगभंग करवा डालते, उनकी आँखें निकलवा दी जातीं, उनके नाक-कान काट लिये जाते या उनके हाथ. . पर कटवा डालते, उनकी चमड़ी उधेड़ ली जाती। इस प्रकार उन्हें मृत्यु से भी बढ़कर असह्य यातनाएं दी जाती थीं। कई क्रूर राजा सिर्फ अपने मनोरंजन के लिए मनुष्यों को नदी या तालाब में डूबा कर उनको तड़फते देख आनन्द मनाते थे, या हाथियों आदि को पहाड़ से नीचे खाई में गिरवा देते जिससे उनके अंगभंग हो जाते, वे असह्य पीड़ा से रिब-रिब कर मर जाते, और उनकी करुण चित्कार सुनकर वे नराधम आनन्द मनाते । प्रत्येक प्राणी को अपना-अपना शरीर या अंगोपांग प्रिय होता है, उनकी रक्षा के लिए वह जीजान से प्रयत्न करता है, उसके पोषण की चिन्ता में रातदिन एक कर देता है । परन्तु जब कोई नरपिशाच जब उनकी सुखकामना के आधार शरीर या अंगोपांग को उससे छीनने या नष्ट करने का प्रयत्न करता है, तो उसे अपार वेदना होती है । वह उस समय तड़फता है, छटपटाता है और बचने का भरसक प्रयास करता है, किन्तु अत्याचारी नरपिशाच उसकी करुण पुकार न सुनकर अपनी कुवासना को ही सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। इसलिए छविच्छेद को प्राणवध का पर्यायवाची कहा गया है। . २२-जीवितान्तकरण—जीवन का अन्त कर देना भी प्राणवध का एक अंग है। प्राणधारण करने का अन्त कर देना भी जीवितान्तकरण है। वास्तव में जीवन सबको अत्यन्त प्यारा होता है, कोई अपने जीवन को सहसा छोड़ना नहीं चाहता,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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