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________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवरद्वार ७७६ कामनाओं) को दूर करके उन पर तहदिल से श्रद्धा करता है, भगवान् के इस प्रवचन पर 'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिहिं पवेइयं' इस वाक्य के अनुसार पूरी श्रद्धा करता है, इनका आचरण देवेन्द्र आदि के ऐश्वर्य की अभिलाषरूप निदान से रहित, गर्व (गौरव) से रहित, लोभ से रहित और मोह से विरक्त होकर करता है, वह श्रमण अपने मन, वचन और काया को परिग्रह वृत्ति से बचाकर पूर्णतया सुरक्षित कर लेता है। और अपरिग्रह वृत्ति में स्थिर हो जाता है। तैतीस बोलों के निरूपण के पीछे उद्देश्य-परिग्रह त्याग के प्रकरण में इन तेतीस बोलों के कथन करने का आशय यह है कि अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार से परिग्रह का त्याग करने पर ही अपरिग्रह महाव्रत की परिपूर्ण रूप से आराधना हो सकती है। चूंकि परिग्रह में ग्रहण होता है और अपरिग्रह में त्याग । इसलिए साधक को कई बार पता ही नहीं होता कि मुझ किन-किन चीजों का साधना के लिए ग्रहण करना है, और किनका त्याग करना है ? वह एक के बदले दूसरे पदार्थ को पकड़ लेता है। इसलिए साधक के सामने अपने जीवन में साधक, बाधक तथा न बाधक न साधक-इन तीनों प्रकार की जो जो खास वस्तुएं आती हैं, उनकी एक सूची (३३ बोल तक की) यहाँ दे दी है । साधु को परिग्रह त्याग के लिए इनका ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। ज्ञान होने पर ही वह साधक बातों को उपादेय, बाधक बातों को हेय और न बाधक न साधक बातों को ज्ञय समझ सकता है। उसके बाद धर्मध्यान शुक्ल ध्यान आदि जो बातें उपादेय हैं, उन्हें वह ग्रहण करता है; असंयम, राग-द्वेष आदि जो वस्तुएं हेय हैं, उनका वह त्याग करता है और देवेन्द्र, परमाधार्मिक आदि जो बातें ज्ञेय हैं उनकी वह जानकारी कर लेता है। इन हेय-ज्ञ य-उपादेय रूप बातों का यथायोग्य आचरण ही परिग्रह त्याग और अपरिग्रह वृत्ति के स्वीकार का कारण है । यही इन तेतीस बोलों के निरूपण का उद्देश्य है। अपरिग्रहसंवर का माहात्म्य और स्वरूप पूर्व सूत्रपाठ में मिथ्यात्व आदि अन्तरंगपरिग्रह के रूप में साधु जीवन में सहसा घुस जाने वाले महापाप से साधु को सावधान करने हेतु एक बोल से लेकर ३३ बोलों का शास्त्रकार ने विशद निरूपण किया है । अब शास्त्रकार अपरिग्रह संवरद्वार का माहात्म्य, तथा स्वरूप निम्नोक्त सूत्रपाठ द्वारा बताते हैं मूलपाठ जो सो वीरवरवयण-विरतिपवित्थर-बहुविहप्पकारो, सम्मतविसुद्धमूलो, धितिकंदो, विणयवेति (इ) ओ (तो),
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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