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________________ ७७० . श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र १६ अपरकंका-द्रौपदी के हरण का वर्णन, १७ आकीर्ण-आकीर्णक अश्व का दृष्टान्त, १८ सुषमा-चिलातीपुत्र चोर का दृष्टान्त, १६ पुण्डरीक-पुण्डरीक कुडरीक का दृष्टान्त । इन अध्ययनों से हेय, ज्ञेय, उपादेय का विवेक प्रात्त करके यथायोग्य करना चाहिए। असमाहिठाणा-२० असमाधि स्थान हैं-(१) द्रुतचारित्व-संयम की परवाह न करके जल्दी-जल्दी चलना । (२) अप्रमाजित-चारित्व-भूमि आदि का प्रमार्जन किये बिना चलना, उठना, बैठना आदि। (३) दुष्प्रमाजितचारित्वविधि पूर्वक भूमि आदि का प्रमार्जन न करने से होने वाली असमाधि । (४) अतिरिक्त शय्यासनिकत्व-मर्यादा से अधिक आसन तथा शय्या-स्थान रखना। (५) रात्निक (आचार्यादि) परिभाषित्व- अपने से बड़े या आचार्य आदि के सामने बोलना, उनका अविनय करना। (६) स्थविरोपघातित्व-आचार्यादि वृद्ध पुरुषों का आचारदोष, शीलदोष या अवज्ञा आदि से पीड़ा पहुंचाना। (७) भूतोपघातित्वएकेन्द्रिय आदि जीवों का घात करना; (८) संज्वलनत्वं-प्रतिक्षण रोष करने या मन में डाह आदि से जलते रहना। (8) क्रोधनत्व-अत्यन्त क्रोध करते रहना । (१०) पृष्ठिमांसकत्व-अपने विरोधी या किसी की भी पीठ पीछे निन्दा करना। (११) अभीक्षणमवधारकत्व या अपहारकत्व-संदेह युक्त बात को भी निःसंदेह बताना । अथवा दूसरे के गुणों का अपलाप करना भी अभीक्ष्ण अपहारकत्वहै । (१२) नये-नये (अनुत्पन्न) अधिकरणोंका उत्पादन-पहले उत्पन्न न हुये नये-नये कलह खड़े करना अथवा यंत्रादि नये-नये उत्पन्न करना। (१३) पुरातनाधिकरण की उदीरणा–पुराने शान्त हुए झगड़ों को हवा दे कर ताजे करना या बढ़ाना। (१४) सरजस्कपाणिपादत्व--सजित्त रज से भरे हुए हाथ-पैर वाले दाता से आहार ग्रहण करना। (१५) अकाल स्वाध्यायकरण-निषिद्ध काल में स्वाध्याय करना । (१६) कलहकरत्व-कलह के कारणभूत कार्यों का करना या उनमें भाग लेना। (१७) शब्दकरत्व-रात्रि में जोर-जोर से स्वाध्याय आदि करना (१८) झंझाकरत्व- गण या संघ में फूट पैदा करने या संघ के मन में पीड़ा पैदा करने वाले वचन बोलना, (१९) सूरप्रमाणभोजित्व-सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक भोजन करते ही रहना । (२०) एषणा में असमितत्व-एषणासमिति पूर्वक आहार की गवेषणा न करना, दोष बताने पर झगड़ा करना आदि । ये सब दोष अन्तरंग परिग्रह से सम्बन्धित होने के कारण इन्हें त्याज्य ही समझना चाहिए। सबला-चारित्र की मलिनता के कारणों को शबल कहते हैं, वे २१ हैं(१) हस्तकर्म करना, (२) अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार से मैथुन सेवन करना,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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