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________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर ७३६ में किया है, उन्हें (य) तथा (रमणिज्जाउज्ज गेयपउर-नड-नट्टक-जल्ल-मल्ल-मुट्ठि कवलंबग-कहग-पवगलासग - आइक्खग - लंख-मंख - तूणइल्ल - तुबवीणिय - तालायरपकरणाणि) रमणीय बाजों और गायनों से संपन्न नट, नाचने वाले, रस्सी पर चढ़कर खेल दिखानेवाले, पहलवान, मुष्टियुद्ध करनेवाले मुक्केबाज, विदूषक या भांड, कथक्कड़, ऊपर से नदी आदि में कूदने वाले या ऊँचे उछलने वाले, रासलीला करने वाले, शुभाशुभ फल बताने वाले, लंबे बांसों पर खेल करने वाले, चित्रपट हाथ में लेकर भीख मांगने वाले डाकौत, तूण नाम का बाजा बजाने वाले, वीणा बजाने वाले, और बाजीगर या ताल बजाने वाले, इन सबकी क्रियाएँ (य) एवं (बहूणि) बहुत से (महुरसर गीत सुस्सराइं) मधुरस्वर में गाने वालों के गीतों की सुरीली आवाजें (य) तथा (एवमादियाणि) इसी प्रकार के, (अन्नाणि) अन्यान्य जो (बंभचेर घातोवघातियाई) ब्रह्मचर्य का आंशिक रूप से या पूर्णरूप से घात करने वाले हैं, (ताई) वे (बंभचेरं) ब्रह्मचर्य (अणुचरमाणेणं) पालन करने वाले साधु के द्वारा (न दट्ट) न देखने, (न कहेडं) न कहने (न वि सुमरिउ) और न स्मरण करने (लब्भा जे) योग्य हैं । (एवं) इस प्रकार (पुव्वरय-पुव्वकीलिय-विरतिसमितिजोगेण) पूर्वगृहस्थावस्था की कामरति, ड्तादि क्रीड़ा के कामोदय दृष्टि से प्रेक्षण-कथन-स्मरण के त्यागरूप समिति के चिन्तन एवं प्रयोग से (अंतरप्पा) साधु का अन्तरात्मा, (भावितो) ब्रह्मचर्य के संस्कार.से युक्त (भवति) हो जाता है, (आरयमण-विरतगामधम्मे) उसका मन ब्रह्मचर्य में ओतप्रोत हो जाता है, और उसको इन्द्रियां विषयों से विरक्त हो जाती हैं । और तब वह (जिदिए) इन्द्रियविजेता साधु (बंभचेरगुत्त) ब्रह्मचर्य को पूर्णरूपेण सुरक्षा कर लेता है । (पंचमगं) पांचवीं प्रणीताहारविरति-समिति भावना है, जो इस प्रकार है—(आहारपणीयनिद्धभोयण-विवज्जते) स्वादिष्ट और गरिष्ठ एवं स्निग्ध भोजन का त्याग करने वाला, (ववगयखीरदहिसप्पि-नवनीय-तेल्लगुलमच्छंडिय-महुमज्जमंसखज्जक विगतिपरिचत्त कयाहारे) दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, गुड़, शक्कर, मिश्री, मधु-शहद, मद्य, मांस आदि विकृतिजनक-विकृतिक खाद्य पदार्थों का, आहार के रूप में त्याग किया हुआ (संजते सुसाहू) संयमी सुसाधु (ण दप्पणं) इन्द्रिय दर्पकारक पदार्थ का सेवन न करे, (न बहुसो) न दिन में कई बार खाए, (न नितिक) न प्रतिदिन खाए, (न सायसूपाहिक) साग-दाल अधिक न खाए, (न खद्ध) न ज्यादा खाए । (तहा) वैसा हित, मित और पथ्यकर (भोत्तव्वं) भोजन करे, (जह) जिससे (से) उस ब्रह्मचारी का वह भोजन (जायामाताए) संयम-यात्रा के निर्वाह-भर के लिए (भवति) हो (य) और जिससे (न विन्भमो) धर्म के प्रति मन को अस्थिरता न हो, (य) और
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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