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________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर ७२७ यह मूल है । निष्कर्ष यह है कि व्रतों के मूल में ब्रह्मचर्य न हो तो सारे व्रत बेकार हैं, मूल्यहीन हैं । इस ब्रह्मचर्य का पालन दोषरहित साधुओं ने भावसहित किया है, या करते हैं । इसके पीछे भी आशय यही है, कि मुनिदीक्षा लेने पर भी जब तक ब्रह्मचर्यपालन भावसहित नहीं करता, तब तक वह मुनि पद के योग्य नहीं होता । इसलिए साधुगण अपनी साधुता की रक्षा और सिद्धि के लिए ब्रह्मचर्य का भावसहित निर्दोष पालन करते हैं । ब्रह्मचर्य समस्त वैर विरोधों को शान्त करने वाला है । क्योंकि 'मेहुणप्पभवं वेरं वेरप्पभवा दुग्गई- मैथुन सेवन से वैर की उत्पत्ति होती है, वैर की उत्पत्ति से दुर्गति होती है । इस उक्ति के अनुसार ब्रह्मचारी जब मैथुनसेवन या बाह्य विषयों से विरत हो जाता है, तब वैर होने का कोई कारण ही नहीं रहता । जब वह स्वतः ही वैर से विरक्त हो जाता है, तब उसके हृदय में वैर की समाप्ति अवश्यम्भावी है । जैसे लवणसमुद्र आदि समग्र समुद्रों से बड़ा एवं महादुस्तर स्वयंभूरमणसमुद्र है, वैसे ही ब्रह्मचर्य सब व्रतों में महादुस्तर है तथा संसार समुद्र से पार करने वाला तीर्थ भी है । इसका तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मचर्यं का पालन करता है. वह अत्यन्त दुस्तर संसार समुद्र को अनायास ही पार कर लेता है | तीर्थंकरों ने नौ गुप्ति आदि के द्वारा इसके पालन करने का उपाय बताया है । मतलब यह है कि ब्रह्मचर्य रक्षा के साधन गुप्ति, भावना आदि हैं। तीर्थंकरनिर्दिष्ट उन उपायों का आलम्बन नहीं लिए जाने पर ब्रह्मचर्य का पालन अत्यन्त दुष्कर है । ब्रह्मचर्य नरक और तिर्यंचगति के बन्ध के मार्ग को रोकने वाला है, क्योंकि ब्रह्मचारी के सदा पवित्र लेश्याएँ रहती हैं, इसलिए मनुष्यगति या देवगति ( उत्तमगति) का ही वह बन्ध करता है, नरकगति और तिर्यंचगति ( दुर्गति) का नहीं । ब्रह्मचर्य समस्त सारभूत पवित्र कार्यों का निर्माण करने वाला है । ब्रह्मचर्य के द्वारा आत्मा में अपूर्व शक्ति प्रगट होती है, जिसके जरिए आत्मा आश्चर्यजनक सारभूत कार्यों को कर लेता है । अनेक प्रकार की ऋद्धियां, विद्याएँ या मंत्र आदि ब्रह्मचारी के सिद्ध होते हैं, इसलिए ब्रह्मचर्य ही प्रधानकार्यों का साधक होता है । ब्रह्मचर्य सिद्धि (मोक्ष) तथा स्वर्गविमानों के द्वार खोलने वाला है। इसका आशय यह है कि जैन सिद्धान्त की दृष्टि अन्तरंग ब्रह्मचर्य (आत्मध्यान) साक्षात् सिद्धि (मोक्ष) का कारण है और बाह्य ब्रह्मचर्य साक्षात् स्वर्ग का कारण और परम्परा से मोक्ष का कारण होता है । यदि मिथ्या दृष्टि भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है, तो वह स्वर्गलोक में जन्म लेता है, और वहां उसे अनुपम इन्द्रियसुख प्राप्त होते हैं । फिर सम्यग्दर्शनपूर्वक पालन किए गए ब्रह्मचर्य का तो कहना ही क्या ? वह तो स्वर्ग में अवश्य ही उच्चदेवत्व का कारण होता है और परम्परा से मोक्ष का जनक । इसीलिए कहा है'सीलव्वयधरो न दुग्गइगमणसोलो' । ब्रह्मचर्य देवेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा नमस्करणीय गणधरों से भी पूजनीय है । साधारण लोग इन्द्र आदि की सेवा-पूजा करते हैं,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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