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________________ ३० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ३० क्षमा, दया, करुणा, सहानुभूति आदि मानवीय गुणों का विराधक-नाशक इत्यादि । इस प्रकार जीवन में कलुषता पैदा करने वाले प्राणवध नामक आश्रव ये तीस नाम हैं, जो कड़वे फल देने वाले हैं । व्याख्या इस सूत्र में प्राणवध (हिंसा) के अपने नाम को सार्थक करने वाले और हिंसा के वास्तविक अवगुणों को बताने वाले ३० नाम बताये गये हैं । गौण शब्द से एक अर्थ यह भी द्योतित होता है कि ये सब नाम तो गौण हैं, मुख्य नाम तो प्राणवध या हिंसा है । कलुष - प्राणवध वास्तव में जीवन ही यह कलुषित भाव पैदा करता रहता है, भाव पैदा नहीं होते । यह आर्तध्यान और फंसाता रहता है, इससे शुद्धभावना का मन में ar को कलुष कहा गया है । को काला कर देता है, हृदय में सदा इसके कारण चित्त में कभी शुद्ध या शुभ रौद्रध्यान के ही भंवरजाल में रात-दिन पैदा होना दुष्कर है । इसलिए प्राण 1 कई बार तो मारने वाले कटुकफलदेशकक - प्राणवध (हिंसा) के ये तीसों ही नाम पापकर्म के बन्धन के के कारण हैं, और पापकर्म का फल सदा कड़वा ही होता है, इसका फल कभी मीठा नहीं होता । वह भोगते समय सदैव बड़ा ही अरुचिकर, ग्लानिकारक और दुःखदायक लगता है । इसलिए इन तीसों को ही शास्त्रकार ने कड़वे फल देने वाले या कटुफल की ओर ले जाने वाले - दुर्गति में ले जाने वाले कहे हैं। केवल परलोक में ही नहीं, इस लोक में भी प्राणवध से अनेक शारीरिक रोग, मानसिक शोक, संताप तथा इष्ट वस्तु या व्यक्ति के वियोग का दुःख मिलता है । इसके अतिरिक्त समाज या मृत प्राणी के परिवार में भी प्राणिवध की प्रतिक्रिया तीव्ररूप में होती है, को भी ऐसा मारा-पीटा जाता है कि उसे छटी का दूध याद आ जाता है, कई दफा तो हत्यारे को लोग जान से भी मार डालते हैं । सरकार को पता लग जाने पर उसे जेल में तरह-तरह की यातनाएँ देने के अलावा आजीवन कारावास या मौत की सजा दी जाती है । समाज ऐसे हत्यारे को कभी अच्छी निगाहों से नहीं देखता, उसे सदा निन्दनीय समझा जाता है, समाज में उसे कभी सम्मान नहीं मिलता। इस प्रकार वह सदा अपमानित जीवन व्यतीत करता है । ये सब प्राणवध के या इसी प्रकार के कुकृत्य के कड़वे फल नहीं, तो और क्या हैं ? यही कारण है, कि प्राणवध या इसके समान प्रवृत्ति के द्योतक जितने भी नाम हैं, वे सब हिंसक को कड़वे फल चखाते हैं । १ - प्राणवध - अज्ञान और मोह में अन्धे होकर किसी भी प्राणी के प्राणों का घात करना प्राणवध है । पांच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु श्वासोच्छ्वास, इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को चोट पहुंचाना, सताना, पीड़ा देना, काटना, पीटना या बिलकुल नष्ट कर देना प्राणवध है । फिर वह प्राणवध किसी भी प्रयोजन
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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