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________________ आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर ६६७ और वृक्षों के स्वयं काटने - कटवाने पर आरम्भादि पापकर्म के अलावा वृक्षादि Satara के लिए वृक्ष. का जीव साधु को आज्ञा नहीं देता, अपने शरीर को काटने की। तब वृक्ष के जीव की आज्ञा न होने से बिना आज्ञा के वृक्ष को काटना चोरी है । कहीं मकान या ठहरने का स्थान प्रतिकूल मिलने पर भले ही थोड़ा कष्ट सहन कर लेना पड़े परन्तु उबड़-खाबड़ स्थान को स्वयं समतल न करे और न हवा वगैरह के बन्द करने या आने के लिए बारी या कपाट की उत्सुकता प्रगट करे । मच्छर आदि को भगाने के लिए न अग्नि जलाए और नधूप आदि से धुंआ करे । साधु अपने संवर, संयम, कषायविजय, इन्द्रियनिग्रह आदि उत्तम बातों में समाधिस्थ हो जाय, अपने मन को आत्मध्यान में एकाग्र कर ले, चाहे अकेला ही हो, धर्माचरण करे, किन्तु इन प्रपंचों में न पड़े। इस प्रकार की शय्यासमिति के चिन्तन के प्रकाश में अपना जीवन सुवासित करे । साधारण पिंडपात्र लाभ समिति भावना का चिन्तन - साधु यह चिन्तन करे कि मैं तो अपना जीवन अपने गुरु के चरणों में समर्पण कर चुका, तब मेरा अपना तो कुछ भी नहीं रहा । यह शरीर भी गुरु, संघ आदि की सेवा के लिए है । सभी साधकों के साथ प्रीति तभी उत्पन्न हो सकती है जब सांघाटिक भोजन की मर्यादाओं का पालन करूंगा । अतः मुझे जो भी आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि भिक्षा विधि से प्राप्त हुए हैं उनका उपभोक्ता मैं अकेला ही नहीं हूं, न मुझे अपने-पराये का भेदभाव करके वितरण में पक्षपात करना है और न ही अच्छा-अच्छा माल झटपट - गले उतारना है, न कोई चीज अपने हिस्से में अधिक ले कर अधिक खानी है, न भोजन आते ही बिना भिक्षा विधि का चिन्तन किए एकदम भोजन पर टूट पड़ना है, न चंचलतापूर्वक खड़े-खड़े या चलते-फिरते ही खाना है, दूसरों को पीड़ा देने वाला सावद्य भोजनादि वस्तु का भी उपभोग नहीं करना है । मुझे इस सामूहिक प्राप्त आहार दि में से इस प्रकार ग्रहण करना या सेवन करना है, जिससे मेरा अचौर्य महाव्रत भंग न हो । मैं अकेला ज्यादा खालूँगा, पक्षपात करूंगा या अन्य दोष सेवन करूंगा तो पराधिकारहरण होने से चोरी का भागी बनगा । इस प्रकार का चिन्तनसर्वस्व ही इस भावना का प्राण है, जिसके प्रकाश में चल कर साधक धन्य हो उठता है । सार्धामिक विनयकरण भावना का चिन्तन- साधर्मिक उसे कहते हैं, जो समान आचार या धर्म वाला साधु हो । साधर्मिक साधुओं में परस्पर नैतिक व्यवहार विनय से ही हो सकता है। छोटा साधु बड़े साधु के प्रति विनय करे और बड़ा साधु छोटों के प्रति नम्र और स्नेहिल रहे । अन्यथा विनय-व्यवहार न होने से कोई भी अपने से बड़े साधु की आज्ञा के बिना ही किसी समय कोई अच्छी चीज गृहस्थ के यहाँ से लाकर अकेला ही खा जाएगा या अकेला ही वस्त्रादि का उपभोग कर लेगा ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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