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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवरं ५७५ हो गई, हमारा मन प्रफुल्लित हुआ । " कोई सम्बन्ध न होने पर भी साधु द्वारा इस प्रकार जोड़ा जाता है - " जैसी तुम्हारी गुणवती माता है, वैसी मेरी भी है, इसे देख-देख कर मेरी आँखों में हर्षाश्रु बरस पड़ते हैं !" अथवा "तुम्हारी सुशील पत्नी के समान मेरी भी सुशील पत्नी है, जिसे मैं छोड़ कर दीक्षित हुआ हूं ।" अथवा “जैसे तुम्हारे पुत्र हैं, वैसे संसार में मेरे भी हैं ।” या वह सम्बन्धों की कल्पना प्रगट करता है - "तुम तो मेरी माता हो या मातृतुल्य ही हो, सहोदर बहन के समान हो या पुत्री ही हो ।” विद्यादोष, मंत्रदोष - जिन मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी हो, उन मंत्रों को जप, होम, यंत्र - लेखन आदि विशिष्ट पद्धति के द्वारा सिद्ध कर लेना विद्यासिद्धि है । इस प्रकार से किसी भी विद्या को सिद्ध करके गृहस्थों के विविध प्रयोजनों के लिए उसका प्रयोग करके अथवा अमुक विद्या गृहस्थों को सिखा कर या सिखा देने का आश्वासन दे कर उनसे भोजनादि वस्तुएँ ग्रहण करना विद्यापिंडदोष है । मंत्रों के अधिष्ठाता देव होते हैं । विविध मंत्रों को जप, पाठ आदि द्वारा सिद्ध करके गृहस्थों के विविध प्रयोजन सिद्ध करने के लिए उनका प्रयोग करके या उन्हें मंत्र बता कर भोजनादि पदार्थ प्राप्त करना मंत्र पिडदोष है । चूर्णदोष, योगदोष- चूर्ण और योग ये दो दोष हैं । आँखों में ऐसा मंत्रित अंजन या अन्य चूर्ण डाल ले, या डाल दे, जिससे सब वश में हो जाय, वह चूर्ण कहलाता है तथा एकदम अदृश्य कर देने वाले सौभाग्यदौर्भाग्यकारक पादलेप आदि योग कहलाते हैं । एक वस्तु के साथ दूसरी वस्तु मिलाने से अनेक प्रकार के अदृष्टकारक अंजन आदि बना कर गृहस्थों को दे कर या उनके लिए प्रयोग करके बदले में उनसे आहारादि लेना चूर्णदोष है । तथा पादलेपन आदि योग स्वयं करके या गृहस्थों को बतला कर बदले में उनसे आहारादि लेना योगदोष है । मूल कर्मदोष गर्भस्तंभन, गर्भाधान, गर्भपात, वशीकरण, बन्ध्याकरण आदि के लिए मंत्र, तंत्र, यंत्र या औषध - जड़ीबूटी आदि बतला कर गृहस्थों से आहारादि नामूलकर्मदोष है । इन उत्पादना के १६ दोषों से रहित शुद्ध आहार आदि ही साधु को ग्रहण करना चाहिए । , पहले बताए हुए शंकित आदि १० एषणा के दोष १६ उद्गमदोष एवं १६ उत्पादनादोष, ये सब मिला कर आहारादि भिक्षा ग्रहण करने के ४२ दोष' होते हैं इनसे बच कर ही साधु अपने संयम एवं अहिंसापालन को शुद्ध रख सकेगा । ; १ - आहार के ये ४२ दोष सामान्य या जघन्य हैं, इसके मध्यम भेद १०६ हैं, और उत्कृष्ट भेद २०४ हैं । इसकी विस्तृत जानकारी के लिए पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थ पढ़ें । —संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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