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________________ उपोद्घात सुख में प्रवृत्ति का उपाय बतलाता है, और जिसे उपाय बतलाया जाता है, वह उपेय व्यक्ति है । इस शास्त्र का मुख्य प्रयोजन जीवों को अपनी अज्ञानदशा से क्षणिक वैषयिक एवं पदार्थजन्य सुखों से होने वाले दुःखों की परम्परा को अवगत करा कर स्थायी और अविनाशी मोक्ष सुख की ओर प्रवृत्त कराना है । इसी प्रयोजन को आगे मूलसूत्र में स्पष्ट किया गया है। मतलब यह है, कि संसारी जीव हेय ( आश्रवों) को हेय समझकर उपादेय (संवरों) में प्रवृत्त हों, यही इस शास्त्र की रचना का मुख्य प्रयोजन है । ५ प्रस्तुत शास्त्र की रचना कब और कैसे ? प्रस्तुत शास्त्र की प्ररूपणा और रचना कब और कैसे हुई, इस सम्बन्ध में ज्ञातासूत्र के प्रथम अध्ययन में वर्णित सन्दर्भ के आधार पर निम्नोक्त विवरण प्रस्तुत किया जाता है— प्राचीन काल में अंगदेश ( वर्तमान में विहार प्रान्त के एक प्रदेश) की राजधानी चम्पा नाम की नगरी थी । वहाँ महाप्रतापी सम्राट कोणिक राज्य करता था । एक बार भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य स्थविर गणधर आर्य सुधर्मास्वामी अपने जम्बू आदि पांच सौ शिष्यों के साथ अनेक गांवों और नगरों में विचरण करते हुए तथा तप और संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए उस नगरी के बाहर पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारे, आकर विराजे । मुनिपुंगव श्री सुधर्मास्वामी का पदार्पण सुनकर सम्राट कोणिक और चम्पानगरी की प्रजा अतीव आनन्दित हुई । वह उनके दर्शन और प्रवचन - श्रवण के लिए बरसाती नदी की भाँति उमड़ पड़ी। और प्रवचन सुनकर वापिस लौट गई । उसके पश्चात् आर्यं सुधर्मास्वामी के प्रधान शिष्य आर्य जम्बू स्वामी ने विनयपूर्वक गुरुदेव से प्रश्न किया - "भंते! मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्ररूपित नौवें अंग अनुत्तरोपपातिक सूत्र का वर्णन तो आपके श्रीमुख से श्रवण कर लिया, अब कृपा करके यह फरमाइये, कि उन श्रमण भगवान् महावीर प्रभु ने दशवें अंग् प्रश्नव्याकरणसूत्र में किन-किन विषयों का प्रतिपादन किया है ।" इसके उत्तर में आर्य सुधर्मास्वामी ने कहा - 'आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दशवें अंग प्रश्नव्याकरण सूत्र को आश्रवद्वार और संवर द्वार- इन दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त करके दश अध्ययनों में प्ररूपित किया है । पहले के पांच अध्ययनों में पांच आश्रवों का और पिछले पांच अध्ययनों में पांच संवरों का क्रमशः वर्णन किया है । पुनः आर्य जम्बूस्वामी ने पूछा - "स्वामिन् ! प्रथम श्रुतस्कन्ध में श्रमण भगवान् महावीर ने किन-किन विषयों का किस प्रकार प्ररूपण किया है ?" इसके उत्तर में आर्य सुधर्मास्वामी ने कहा—लो, सुनो !
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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