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________________ ४५४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र और छल-कपट का गठबन्धन है ही। ये तीनों लड़ाई-झगड़े के मूल कारण हैं। परिग्रह के लिए दुनिया में भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, पति-पत्नी में, माता-पुत्र में भयंकर लड़ाइयाँ हुई हैं, सिर फुटौव्वल हुए है; तू-तू-मैं-मैं हुई है। इसीलिए लोभ, कलह और कषाय, इन तीनों को परिग्रहवृक्ष का महास्कन्ध (धड़) बताया गया है। फिर सैकड़ों नित नई चिन्ताएँ इस परिग्रहवृक्ष की शाखाएँ है। कहा भी है अर्थानामर्जने दुःखं, अजितानां च रक्षणे। आये दुःखं, व्यये दुःखं, धिगाः कष्टसंश्रयाः ।।' अर्थात्-अर्थों-धनसम्पत्ति या पदार्थों को अव्वल तो प्राप्त करने में ही चिन्ता आदि दुःख लगे हुए हैं, फिर प्राप्त हो जाने पर उन धन आदि प्राप्त पदार्थों की रक्षा करने में चिन्ता आदि सैकड़ों कष्ट हैं। धन के आने में दुःख, खर्च होने में दुःख । धिक्कार है, अर्थ सुख के नहीं, कष्टों के ही आश्रयस्थान हैं। परिग्रह बढ़ने के साथ ही क्रोध,अभिमान, माया और लोभ तो बढ़ ही जाते हैं । साथ ही कई ऐब भी लग जाते हैं । ऐब लग जाने पर परिग्रही मनुष्य स्वयं चिन्ताओं के जाल में फंसता है । एक चिन्ता पूरी हुई न हुई,तब तक दूसरी चिन्ता आ धमकती है। शाखाओं की तरह चिन्ताएं नित-नई बढ़ती ही जाती हैं। इसलिए चिन्ताएं परिग्रहवृक्ष की डालियां हैं, जो बहुत दूर तक फैली हुई हैं। ऋद्धि-रस-सातागौरवरूप इस परिग्रह वृक्ष की विस्तृत अग्रशाखाएं हैं। जब मनुष्य के पास परिग्रह बढ़ जाता है, तो उसे अपनी ऋद्धि-विभूति, अपने पास प्रचुर धन के कारण प्राप्त हुए साधनों, इन्द्रियविषयों में रागरंग आदि में या स्वादिष्ट भोज्य वस्तुओं में रस का एवं अपने प्राप्त हुए सुखसाधनों के द्वारा होने वाले क्षणिक सुख का घमंड हो जाता है । इससे वह दूसरों को तुच्छ समझता है,अपने हितैषियों को ठुकरा देता है, अपने सिवाय अन्य से घृणा करने लगता है। इस परिगृहवृक्ष की छाल (त्वचा), पत्ते और छोटे कोमल पत्ते वंचना व छल है । जब मनुष्य के पास परिग्रह बढ़ता है या वह परिग्रह बढ़ाना चाहता है तो वह अपने सगे भाई तक के साथ प्रायः झूठ-फरेब, द्रोह, छल-छिद्र या धोखेबाजी करता है। इसके बाद इस परिग्रहवृक्ष के फूल और फल कामभोग हैं। जब मनुष्य के पास परिग्रह बढ़ता है, और वह बढ़ता है-अन्याय-अनीति या शोषण द्वारा, तब उस परिग्रही को ऐश-आराम, भोगविलास या रागरंग की सूझती है। वह नाटकसिनेमाओं में ही अपना धन खर्च करता है। फिर उसका चित्त धार्मिक बातों में, धर्माचरण में, दान में, या शुभकार्यों में लगना कठिन है । रातदिन नाना प्रकार के
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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