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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव ४२१ जाते हैं, मारे-पीटे जाते हैं, जेल में बंद कर दिये जाते हैं, अनेक प्रकार की यातनाएँ पाते हैं, साक्षात् नरक-की-सी असह्य पीड़ा उन्हें यहाँ और परलोक में मिलती हैं । आगे चलकर उन्हें परलोक में भी भयंकर सजाएं मिलती हैं। _ 'मेहुणमूलं च सुव्वए तत्थ ...... संगामा जणक्खयकरा'-वास्तव में संसार में जितने भी जनसंहारक संग्राम लड़े जाते हैं, उनमें एक निमित्त कारण स्त्री भी है। परस्त्रीगामी इतना भयंकर पापात्मा है कि कृत पाप का कुफल तो उसे मिलता ही है, किन्तु उसके निमित्त से अन्य प्राणियों को भी उनका कटुफल अनुभव करना पड़ता है । विभिन्न धर्मशास्त्रों में जगह-जगह ऐसी बातें देखने-सुनने में आई हैं कि इस परस्त्रीसेवन के निमित्त से असंख्य निरपराध जनसमूह का निर्मम संहार करने वाले युद्ध हुए हैं । जिस देश, गाँव या नगर में परस्त्रीलंपट निवास करता है, उस गाँव, नगर या देश का संहार हुआ है। फिर इस पापकर्मरूपी दावानल की चिनगारियाँ दूर-दूर तक उछलती हैं और उन देशों को भस्मसात कर डालती हैं । इसलिए मैथुन-सेवन की जड़ परस्त्री को माना गया है, परस्त्री को लेकर ही तलवारें चली हैं, वैर-विरोध बढ़े हैं और निर्दोष मनुष्यों के संहारक सैकड़ों युद्ध हुए हैं। इसीलिए एक आचार्य ने कहा है 'संतापफलयुक्तस्य नृणां प्रेमवतामपि । बदमूलस्य मूलं हि महत्वैरतरोः स्त्रियः ॥' अर्थात—प्रेमभाव से रहने वाले मनुष्यों में महान् भयंकर वैररूपी वृक्ष का, जिस पर संतापरूपी फल लगते हैं और जो बड़ी मजबूत-जड़ जमाए हुए है, मूल स्त्रियाँ ही हैं। संसार में स्त्रियों के लिए बड़े-बड़े झगड़े हुए हैं, जिनमें कामलोलुप लोगों ने तो पतंगों की तरह कूद कर अपनी जानें दी हैं, लेकिन लाखों निर्दोष मनुष्य यों ही मारे गए हैं। इसलिए स्त्री को झगड़े की जड़ कहा है। जैसे कमठ के जीव ने पार्श्वनाथ (तीर्थंकर) की आत्मा के साथ स्त्री के निमित्त से ही भयंकर वैर विरोध किया, जो अनेक भवों तक चला। स्त्री के निमित्त हुए संग्राम के विभिन्न उदाहरण(१) सीता के निमित्त युद्ध-मिथिला नगरी के राजा जनक थे। उनकी रानी का नाम विदेहा था। उनके एक पुत्र और एक पुत्री थी । पुत्र का नाम भामंडल और पुत्री का नाम जानकी-सीता था। सीता अत्यन्त रूपवती और समस्त कलाओं में पारंगत थी। जब वह विवाह योग्य हुई तो राजा जनक ने स्वयंवरमंडप बनवाया और देश-विदेशों के राजाओं, राजकुमारों और विद्याधरों को स्वयंवर के लिए आमंत्रित किया। राजा जनक ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि जो स्वयंवर-मंडप में स्थापित देवाधिष्ठित
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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