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________________ ३२८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र उन सबमें अब्रह्मचर्य विघ्नकारक है । तप, जप, ध्यान, मौन, स्वाध्याय, सेवा आदि सब में यह रोड़ा अटकाने वाला है। इसीलिए कहा है-'तवसंजमबंभचेरविग्धं ।' मतलब यह है कि अब्रह्मचर्य शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक, आर्थिक और आत्मिक सभी प्रकार की हानि करने वाला है। प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक डॉ० थोरो से उसके शिष्य ने पूछा-'गुरुदेव ! मनुष्य को अपने जीवन में कितनी बार स्त्रीप्रसंग करना चाहिए ?' थोरो ने उत्तर दिया-'जीवनभर में सिर्फ एक बार ।' शिष्य ने फिर पूछा-'अगर इतने से न रहा जाय तो?' थोरो ने कहा-'साल में एक बार ।' 'अगर इतने से भी न रहा जाय तो?' शिष्य ने पुनः पूछा। थोरो—'तो, महीने में एक बार ।' शिष्य-'अगर इस पर भी न रहा जाय तो क्या करना चाहिए ?' थोरो-'तब उसे कफन ले कर अपने सिरहाने रख लेना चाहिए और फिर जो मन चाहे करना चाहिए।' मतलब यह है कि ब्रह्मचर्य के नाश से जीवन का ह्रास और नाश होता है। अब्रह्मचर्य से कितनी बड़ी हानि है यह ? ____ कई लोग यह मानते हैं कि हिंसा, झूठ,चोरी आदि से तो अपने नुकसान के साथसाथ दूसरों का भी बड़ा भारी नुकसान है, लेकिन अब्रह्मचर्य से केवल अपना ही नुकसान होता है ; इसमें परिवार, राष्ट्र या समाज आदि का क्या नुकसान है ? परन्तु यह भ्रान्ति है। अब्रह्मचर्य-सेवन से अपनी तो अपार हानि होती ही है। परिवार आदि की भी बहुत बड़ी हानि होती है। जिस परिवार; कुल, जाति या राष्ट्र में व्यभिचारी या कामी पुरुष होते हैं, वे अपने दुष्कार्य से उसे बदनाम और कलंकित करते हैं, उनकी संतानों में भी परम्परा से प्रायः वे ही कुसंस्कार उतर कर आते हैं। वह परिवार या समाज को दुर्बल, निर्वीर्य, निरुत्साही व कुसंस्कारी संतान दे जाता है । ऐसे व्यक्ति कई पैतृक रोग भी अपनी संतान को दे जाते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। अब्रह्मचर्य-सेवन करने वाला प्रायः किसी न किसी रोग से अल्प आयु में ही कालकवलित हो जाता है ; इससे राष्ट्र या समाज को उसके जीवन से होने वाले सुकार्यों के लाभ से वंचित रहना पड़ता है। परिवार को उसकी बीमारी के समय आर्थिकहानि उठानी पड़ती है। हैरानी-परेशानी भोगनी पड़ती है और उसकी सेवा में लगातार जुटा रहना पड़ताहै, जिससे आजीविका का कार्य ठप्प हो जाता है । ये सब सामाजिक, पारिवारिक या राष्ट्रीय हानियाँ कम नहीं हैं ! . __ अब्रह्मचर्य का सेवन कौन करते हैं, कौन नहीं ?—अब सवाल यह होता है कि अब्रह्मचर्य जब इतनी अगणित हानियाँ करता है तो उसका सेवन कौन व्यक्ति और क्यों सेवन करते हैं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं—'कायरकापुरिस
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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