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________________ ३१० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह एवं आरम्भ के करने, कराने और अनुमोदन द्वारा संचित आठ प्रकार के कर्मों के अत्यन्त बोझ से दबे हुए तथा व्यसनरूपी जल के प्रवाह के द्वारा अत्यन्त निमग्न हुए प्राणी संसारसागर में डूबते-उतराते रहते हैं; उन्हें इसका पैंदा ( तलभाग) पाना अत्यन्त दुर्लभ है । जिसमें प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःख भोगते रहते हैं । सांसारिक सुख और दुःख से उत्पन्न परिताप के कारण वे कभी इसके ऊपर-ऊपर तैरने और कभी डूबने की चेष्टाएँ करते रहते हैं । चारों दिशाओं रूपी चार गतियों तक इसका अन्त - किनारा होने से यह संसारसागर महान् है, अन्तरहित है, विस्तीर्ण है । संयम अस्थिर जीवों के लिए यहाँ आलंबन - सहारा या संरक्षण नहीं है । यह अल्पज्ञों (छद्मस्थों) के ज्ञान का विषय नहीं है, यह चौरासी लाख जीवयोनि से भरा है । यहाँ पर अज्ञानरूपी अंधेरा है, यह अनन्तकाल तक स्थायी है और नित्य है । इस संसारसमुद्र की उद्विग्न-निवास वाली जगह में रहने वाले पापकर्म करने वाले प्राणी जिस किसी गाँव या कुल आदि का आयुष्य बांधते हैं, वहाँ पर पैदा होकर वे भाई आदि बन्धुओं, पुत्र आदि स्वजनों और मित्रों से रहित होते हैं, वे जनता को अप्रिय लगते हैं, उनके वचनों को कोई मानता नहीं, वे स्वयं दुर्विनीत होते हैं । उन्हें खराब से खराब स्थान, खराब आसन, खराब शय्या (खाट, बिछौने आदि) और रद्दी भोजन मिलता है । वे स्वयं गंदे, घिनौने और आचरण से अशुद्ध होते हैं अथवा शास्त्रज्ञान से हीन होते हैं । उनको शरीर का संहननं -गठन खराब मिलता है, उनका कद ठीक नहीं होता, उनको शरीर का ढांचा बहुत ही हलका मिलता है; वे अत्यन्त बदसूरत होते हैं, वे अत्यन्त क्रोधी, मानी, मायी और लोभी होते हैं, वे अत्यन्त आसक्ति वाले या मूढ़ होते हैं । वे धर्मसंज्ञा ( संस्कारिता) और सम्यक्त्व से कोसों दूर होते हैं; दरिद्रता का उपद्रव उन्हें सदा सताता रहता है । वे हमेशा दूसरों के आज्ञाधीन रह कर काम करते हैं । वे जीवन के साधनरूप अर्थ से रहित होते हैं अथवा मनुष्यजीवन के लक्ष्य - प्रयोजन से अनभिज्ञ होते हैं; वे कृपणरंक या दयनीय होते हैं, हमेशा दूसरों से भोजन पाने की ताक में रहते हैं; बड़ी मुश्किल से भरपेट भोजन पाते हैं । उन्हें जो भी नीरस, रूखा-सूखा और तुच्छ आहार मिल जाता है, उसी को अपने पेट में डाल लेते है । वे सदा दूसरों
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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