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________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान-आश्रव ३०१ मुच्यते । न चावेदयित्वा अस्ति तु मोक्ष इति । एवमाख्यातवान् ज्ञातकुलनन्दनो महात्मा जिनस्तु वीरवरनामधेयः । कथितवान् च अदत्तादानस्य फलविपाकमेतम् । तत् तृतीयमप्यदत्तादानं दाह-हरण-मरण-भय-कलुष-त्रासन परसत्काभिध्यालोभमूलम् एवं यावत् चिरपरिगतम् अनुगतम्, दुरन्तम् । तृतीयम् अधर्मद्वारं समाप्तमिति ब्रवीमि ॥ ३॥ (सूत्र० १२) । पदार्थान्वय-(तत्थेव) वहीं कैदखाने में ही (मया) मर जाते हैं । (अकामया) वे मरना नहीं चाहते हुए भी अकालमृत्यु से मरते हैं, अपनी इच्छा से नहीं। मरने पर वे (पादेसु) पैरों में (बंधिऊण) रस्सी बांध कर (कड्ढिया) जेलखाने से बाहर खींचे जाते हैं, और (खाइयाए छूढा) खाई में फेंक दिये जाते हैं । (य) और (तत्थ) वहाँ-खाई में, (वग-सुणग-सियाल-कोल-मज्जार-वंद-संदंसगतुंड-पक्खि-गणविविहमुहसयविलुत्तगत्ता) भेड़ियों, कुत्तों, सियारों, सूअरों और विलावों के झुंड तथा संडासी के समान मुंह वाले पक्षीगण विविध अपने मुखों से उनके शरीर को नोच डालते हैं । (केई) कई अपराधियों को (विहंगा) गोध, बाज आदि चट कर जाते हैं, (केइ) कई अपराधियों के (किमिणा कुहियदेहा) शरीर में कीड़े पड़ जाते हैं, उनके शरीर सड़ जाते हैं। इस प्रकार सड़-सड़ कर मर जाने के बाद भी (इति अणिट्ठवयणेहिं सप्पमाणा) इस प्रकार के अनिष्ट-अप्रिय वचनों से निन्दित किए जाते हैं--धिक्कारे जाते हैं कि (सुठ्ठ कयं जं पावो मओ) ठीक किया या अच्छा हुआ, जो यह पापी मर गया या मार डाला गया, (य) और फिर (तुट्ठणं जणेणं) संतुष्ट लोगों द्वारा (हम्ममाणा) निन्दा का ढिंढोरा पीटा जाता है। (य) और (मया संता दोहकालं सयणस्स विलज्जावणया) मरने के बाद भी वे दीर्घकाल तक दूसरों को ही नहीं, अपने स्वजन-सम्बन्धियों को भी अपने पिछले कारनामों से लज्जित करते (होति) हैं। पुणो) मरने के पश्चात् वे (परलोगसमावन्ना) परलोक में पहुंचते हैं, वहां भी वे (निरभिरामे) असुन्दर-खराब तथा (अंगारपलित्तककप्प-अच्चत्थसीयवेदणअस्साउदिन्नसयतदुक्खसयसमभिदुते) जलते हुए अंगारे के समान अत्यन्त गर्मी और अत्यन्त ठंड की पीड़ा तथा असातावेदनीयकर्म के उदय से प्राप्त निरन्तर सैकड़ों दुःखों से भरे हुए (नरए) नरक में (गच्छंति) जाते हैं । (ततो वि) वहाँ से (उवट्टिया) इतने दुःख भोगने के बाद निकले हुए वे पुणोवि) फिर भी (तिरियजोणि पवज्जति) तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त करते हैं (तहिं पि) वहाँ भी (निरयोवम) नरक के समान (वेयणं) वेदना (अणुहवंति) भोगते हैं। (ते) वे (अणंतकालेण) अनन्तकाल में (जति नाम कहिंपि) यदि किसी भी तरह से (णेगेहि णिरयगतिगमण-तिरिय-भवसयसहस्सपरिय?हिं) अनेक चक्कर नरकगति में गमन के और लाखों चक्कर तियंचगति में जाने के होने
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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