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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव 'सचमुच यहाँ पिशाच रहते हैं। क्योंकि हम भी वन में ही रहते हैं ; और भेरी (नगाड़े) को हाथ से छूते तक भी नहीं, फिर भी वह बराबर आवाज करती रहती है। इससे निश्चित है कि भेरी को पिशाच ही बजाते हैं। इस प्रकार हमारी सब लोकयात्रा अपने आप ही अनायास सम्पन्न होती रहती है।' इस प्रकार बिना ही पुरुषार्थ, काल, स्वभाव और होनहार की अपेक्षा रखे अपने आप ही सब काम होते रहते हैं, किसी काम का कोई कर्ता-धर्ता नहीं होता। __इसके पश्चात कई दार्शनिक पुरुषार्थवाद को ही एकान्त महत्त्व देते हैं। उनका कहना है कि काल, स्वभाव आदि कितने ही अनुकूल हों, पहले या पीछे पुरुषार्थ तो करना ही पड़ता है । पुरुषार्थ से ही सब काम सफल होते हैं । संसार में धनवान, विद्यावान, चारित्रवान,कीर्तिमान और सत्तावान पुरुषार्थ के बल पर ही बनते हैं । यदि हम भाग्य, काल, स्वभाव या दैव आदि के भरोसे चुपचाप बैठे रहते तो कभी अपने मनोनीत कार्य में सफल नहीं होते । अतः पुरुषार्थ ही संसार के सब कार्यों का प्रधान कारण है । कहा भी है • उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी देवेन देयमिति कापुरुषा वदंति ॥ दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या। यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः ॥१॥ उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥२॥ ... 'दुस्साध्यमप्युद्यमतस्सुसाध्यं, भवेदनालस्यवशादभीष्टम् ।' ... ____अर्थात्--'लक्ष्मी उद्योगी पुरुषसिंह के पास ही आती है। जो कायर होते हैं, वे ही चिल्लाते हैं कि दैव ही देगा। अत: देव का पल्ला छोड़ कर अपनी शक्तिभर पुरुषार्थ करो। प्रयत्न करने पर भी यदि कोई कार्य सिद्ध नहीं होता, तो इसमें क्या दोष है ? कार्य उद्यम से ही सिद्ध होते हैं, केवल मनोरथ करने से नहीं । सोये हुए आलसी सिंह के मुंह में कभी हिरण आ कर नहीं घुसते । उसके लिए उसे पुरुषार्थ करना ही पड़ता है। पुरुषार्थ से दुःसाध्य बातें भी सुसाध्य हो जाती हैं ; आलस्य छोड़ कर उद्यम करने से ही अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।" इस प्रकार काल, स्वभाव, नियति, दैव, यदृच्छा, कर्म और पुरुषार्थ इनमें से एक-एक को ही एकान्तरूप से मानने और दूसरों का निषेध करने वाले ये सब दार्शनिक यथार्थ: वादी नहीं हैं । ये एकान्तवादी होने के कारण असत्यवादी हैं। कहा भी है 'कालो सहाव नियई, पुवकयं पुरिसकारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ होंति सम्मत्तमिति ॥' .
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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