SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगम्बर परम्परा में भी प्रश्न व्याकरण का जो नष्ट, मुष्टि आदि चमत्कारी विषय प्रतिपादित किया है, वह श्वेताम्बर परम्परा के समवायांग तथा नन्दी सूत्र आदि से मिलता है। दिगम्बर परम्परा अंग साहित्य का विच्छेद मानती है, अतः वर्तमान में उसके यहाँ आचारांग आदि अंग तथा औपपातिक आदि अंग बाह्य आगमों में से कोई भी आगम नहीं है । अतः प्रश्न व्याकरण भी नहीं है, जिस पर कुछ विचारचर्चा की जा सके । श्वेताम्बर परम्परा में एक प्रश्नव्याकरण वर्तमान में भी उपलब्ध है, पर उस में उल्लिखित विषयों जैसा कोई विषय नहीं है। एक प्रश्न ? श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में प्राचीन प्रश्न व्याकरण सूत्र का जो विषय बताया है, उसके सम्बन्ध में एक प्रश्न उभरता है। ज्योतिष, मन्त्र, तन्त्र आदि से सम्बन्धित शास्त्रों को जैन परम्परा पापश्रुत मानती है । और पापश्रुत के प्रयोग जैन भिक्षु के लिए निषिद्ध हैं ।२८ फिर वीतराग, अध्यात्म पुरुष तीर्थंकर ऐसे निषिद्ध विषयों का एक शास्त्र के रूप में इतना विस्तृत प्रतिपादन क्यों करते हैं ? क्या उन की ही अपनी परिभाषा में ये सब पापश्रुत में नहीं आते हैं ? इस प्रकार के सांसारिक विषयों के प्रतिपादक चमत्कारी शास्त्रों से अध्यात्म साधना के साधक को क्या लाभ हो सकता है ? साधक के लिए तो वही शास्त्र शास्त्र है, जिसे श्रवण कर अन्तरात्मा में तप, क्षमा, अहिंसा आदि विशुद्ध भावों का जागरण हो । यदि ऐसा कुछ नहीं होता है तो वह ज्योतिष आदि अन्य लौकिक विषयों का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र, भले ही कुछ और हो, धर्मशास्त्र तो बिल्कुल नहीं हो २७-(क) नवविहे पावसुयपसंगे पण्णते, तं जहा उप्पाए, नेमित्तए, मंते, आइक्खए, तिगिच्छोए। कलावरण-अन्नाणे, मिच्छापावयणे त्ति य ॥ . -स्थानांग ६ स्थान (ख) पापोपादानहेतुः श्रुतं शास्त्रं पाप तम् । - स्थानांग वृत्ति, ६ स्थान (ग) समवायांग २६ वां समवाय २८-(क) सूत्रकृतांग सूत्र, द्वितीय तस्कन्ध, द्वितीय अध्ययन (ख) उत्तराध्ययन सूत्र, १६७-८ २६-जं सोच्चा पडिवजंति, तवं खंतिमहिसयं । -उत्तराध्ययन ३८
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy