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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र २ शर्कराप्रभा, ३ बालुका प्रभा ४ पंकप्रभा, ५ धूमप्रभा, ६ तमः प्रभा और ७ तमस्तमः प्रभा । इन सात नरक भूमियों में कुल प्रस्तार (पटल या पाथड़े ) ४६ हैं । पहली भूमि में १३, दूसरी में ११, तीसरी में ६, चौथी में ७, पांचवी में ५, छठी में ३ और सातवी में १ प्रस्तार हैं । इस तरह कुल ४६ प्रस्तार होते हैं, जहाँ नारक जीवों के चारक ( बंदीगृह की तरह) - उत्पत्ति स्थान हैं, नरकागार हैं। ये नरकागार आजन्म कारागार वाले कैदियों की अंधेरी कोठरियों से या काले पानी की सजा से किसी तरह भी कम नहीं हैं, बल्कि उनसे भी कई गुने भयंकर, दुर्गन्धमय, अन्धकारमय और सड़ान वाले हैं । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार - ( ' नित्याशुभतरलेश्यापरिणाम- देह वेदनाविक्रिया: ' 'संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः' ) वे नारक जीव नित्य अशुभतर लेश्या, बुरे से बुरे परिणाम, भयंकर से भयंकर शारीरिक वेदना और वैक्रियलब्धिवशात् बार-बार काटने-पीटने छेदने और यातना पाने से अत्यन्त संक्लिष्ट रहते हैं, तीसरी नरक तक परमाधार्मिक असुरों के द्वारा प्रेरित और पीड़ित किये जाने पर वे बार-बार दुःखी होते हैं । सचमुच नरक के इतने भयंकर दुःखों का वर्णन सुनकर रोम-रोम कांप उठता है । ८४ वैसे तो विभिन्न धर्म के शास्त्रों या ग्रन्थों को सुनने पर यह पता लग ही जाता है कि नरक कितना भयंकर और दुःखों का सागर है। मगर सुन लेने पर भी आदमी तब तक उस पर ध्यान नहीं देता, जब तक उसे अनुभव न हो जाय, या ठोकर न लग जाय, इसीलिए 'अयाणमाणा' शब्द केवल सुनकर पता लगाने के अर्थ में नहीं, अपितु अपने या दूसरों पर आ पड़ने वाले दुःखों को देखकर प्रत्यक्ष महसूस करने के अर्थ में ही अधिक संगत है । स्वर्ग-नरक की बातें तो कसाई, आदिवासी, भील या मांसभोजी हिंसक भी सुनते हैं, पर उनके धर्मशास्त्रों में कहीं-कहीं पशुबलि, कुर्बानी, मांसाहार, शिकार के रूप में विधान भी मिलता है, इसलिए दूसरे धर्मों वाले उपर्युक्त व्यक्ति स्वर्ग-नरक की बातें सुन लेने पर भी धर्म के रूप में, देव देवियों को प्रसन्न करने और तुच्छ स्वार्थ को सिद्ध करने की दृष्टि से अमुक हिंसा कार्य को बुरा नहीं समझते । इसीलिए वीतराग नि:स्पृह महर्षि तीर्थंकर देव तो किसी भी जीव के प्रति अन्याय या पक्षपात न करते हुए स्पष्ट रूप से हिंसा के कुफल का प्रतिपादन करते हैं । नरक के अस्तित्व की सिद्धि कई नास्तिक लोगों का कहना है कि " स्वर्ग-नरक कुछ भी नहीं है, ये सब गप्पें हैं । नरक में होने वाली पीड़ा अत्यन्त भय बतलाने के लिए है, जबकि स्वर्ग में होने वाले सुख प्रलोभन देने के लिए हैं । हम न तो स्वर्ग के लोभ से अहिंसा को पकड़ सकते हैं और न नरक ( दोजख ) के भय से हिंसा को छोड़ सकते हैं । जब तक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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