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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र सुखाने वाले, जहर देकर मारने का धन्धा करने वाले, जंगलों या खेतों में आग लगाने वाले आदि । ७८ ये पापी जीव केवल अपना पेट पालने के लिए इस प्रकार के घातक धन्धे अपनाते हैं, उस समय यह नहीं सोचते कि मैं इस धंधे के सिवाय अन्य सात्त्विक धन्धों में से किसी को क्यों न अपना लूं ! जिस परिवार के पोषण के लिए मैं यह न धन्धा अपनाये हुए हूं, उनका पोषण क्या और किसी सात्त्विक धन्धे से नहीं हो सकता ? और फिर जो भयंकर क्रूर कर्म मैं कर रहा हूं, उसका फल लो मुझे ही भोगना पड़ेगा, उस समय मेरे दारुण दुःख को बंटाने के लिए परिवार वाला कोई नहीं आएगा । कई बार जो मनुष्य प्राणिघातक धन्धों को वंश परम्परा से करता है, उसे अपनी वर्षों की पड़ी हुई बुरी आदत के कारण छोड़ नहीं पाता, आदत से लाचार हो जाता है, उसका मन लिप्त हो जाता है, उसके परिवार वाले भी उसे उसी धन्धे को करने के लिए उकसाते हैं और विवश कर देते हैं । रात-दिन उसी पापकारी धन्धे में रचापचा रहने के कारण उसका मन भी पापकर्म में ढीठ बन जाता है, फिर तो उसे उसी पापकर्म में आनन्द आता है । इसी दृष्टिकोण को लेकर शास्त्रकार ने पापकर्मरत मनुष्यों को उसके फल की ओर सोचने को प्रेरित किया है । हिंसा से अपनी जीवनयात्रा चलाने वाले प्राणियों को पालने वाला भी प्रायः इसी कोटि में आता है । ऐसे पापपूर्ण आजीविका वाले मनुष्यों को लगातार कई जन्मों तक सुगति नहीं मिलती, वे उन्हीं नरक और तिर्यञ्च गति की विविध योनियों में जन्म-मरण करते रहते हैं । 1 आजीविका के लिए प्राणिवध जैसे क्रूर कर्म करने वाले म्लेच्छजातीय मनुष्य किस-किस देश में कहाँ-कहाँ अधिकतर पाये जाते हैं, इस दृष्टि से तथा अलगअलग देश, भाषा और जाति की दृष्टि से उनके बहुत से नाम शास्त्रकार ने गिनाए हैं । जैसे—शकदेशवासी, यवद्वीपवासी, शबर (भील), बर्बर ( अफ्रीका के नर भक्षी मनुष्य), अरब, चीनी, रोमन, रूसी, कोंकणी, मालव, द्राविड़, मरहट्ठे, पारसी, ( ईरानी ), सिंहल देशीय, मलाबारी, वालीद्विपीय, कंधारी (काबुली), केकयवासी, खस जातीय, खासी जातीय, डोंब जातीय, श्वेत जातीय, मरुभूमीय, पश्तोभाषी - पेशावरी ( पन्हव ), चिलात देशवासी आदि । हूण, इनमें से बहुत-से नाम तो आज भी मिलते हैं, बहुत से उस जमाने में थे, आज उनके नाम बदल गये हैं । इनमें से कई दूसरी कोटि के भी हिंसक हैं, कई तीसरी कोटि के भी हैं । क्योंकि इनमें बहुत-से देश मांसभोजी हैं, इसलिए मांस प्राप्त करने के लिए जीव हिंसा
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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