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________________ २१४ | जैन तत्त्वकलिका--सप्तम कलिका __ लोक और अलोक का विभाजन एक शाश्वत तथ्य है । अतः इसके विभाजक भी शाश्वत होने चाहिए । उपर्युक्त ६ द्रव्यों में से ही विभाजक तत्त्व हो सकते हैं क्योंकि सातवाँ द्रव्य है ही नहीं । जीव और पुद्गल गतिशील द्रव्य हैं, अतः ये विभाजक तत्त्व के योग्य नहीं हैं । काल को विभाजक तत्व माना जाए तो तर्कसंगत नहीं; क्योंकि काल निश्चय दृष्टि से तो जीव और अजीव की पर्याय मात्र है। यह केवल औपचारिक द्रव्य है। व्यावहारिक काल लोक के सीमित क्षेत्र में ही विद्यमान है। आकाश को विभाजक माने तो भी उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि आकाश स्वयं लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में विभज्यमान है । अतः वह विभाजन का हेतु नहीं बन सकता। इसलिए धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, ये दोनों द्रव्य ही आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) के विभाजक बनते हैं। यदि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का स्वतंत्र अस्तित्व न मान कर आकाशद्रव्य ही इन लक्षणों से मुक्त माना जाए तो बहुत अव्यवस्था उत्पन्न होगी । यदि आकाशद्रव्य पदार्थों की गति में सहायक हो तो आकाश असीम और अनन्त होने के कारण गतिमान पदार्थों की गति भी अनन्त आकाश में अबाधित हो जाएगी, फिर स्थिति करना भी कठिन होगा । फलतः अनन्त आत्माओं (जीव) और अनन्त पुद्गलों (जड़ पदार्थों) की गति अनन्त आकाश में निरंकुशतया होने लगेगी, ऐसी स्थिति में उनका परस्पर संयोग होना और व्यवस्थित, सान्त और नियंत्रित विश्व के रूप में लोकाकाश का होना असम्भव हो जाएगा; किन्तु इस विश्व का रूप व्यवस्थित है। विश्व एक क्रमबद्ध संसार के रूप में दिखाई देता है, न कि अव्यवस्थित ढेर की तरह। फलतः हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि विश्व-व्यवस्था की दृष्टि से पदार्थों की गति-स्थिति में सहायक आकाशद्रव्य नहीं, अपितु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक स्वतन्त्र द्रव्य हैं, किन्तु इन नामों से इन दोनों द्रव्यों का अस्तित्व जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन द्वारा स्वीकृत नहीं है। प्रकाश की किरणें एक सेकण्ड में १,८६,००० मील की गति से गमन करती हैं । वैज्ञानिकों के सामने यह प्रश्न उठा कि ये प्रकाश की किरणें किस तस्माद् धर्माधर्मो अवगाढौ व्याप्य लोक खं सर्वम् । एवं हि परिच्छिन्न: सिद्ध यति लोकस्तद् विभुत्वात् ।।२।। (ख) लोकालोक व्यवस्थानुपपत्तेः । -प्रज्ञापना पद १ वृत्ति (ग) तम्हा धम्माधम्मा लोग परिच्छेयकारिणो जुत्ता। हयरहागासें तुल्ले लोगालोगेत्ति को भेओ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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