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________________ कर्मवाद : एक मीमांसा | १६१ परतन्त्र हो जाता है; अथवा विष या मद्य का सेवन करते समय तो व्यक्ति स्वतन्त्र होता है किन्तु मूच्छित एवं उन्मत्त हो जाने पर परतन्त्र हो जाता है। इसी प्रकार निकाचित कर्मों का फल भोगते समय जीव कर्माधीन (परतन्त्र) हो जाता है। कभी-कभी कर्मों की बहुलता से जीव दब जाता है। अतः दोनों दृष्टियों से विचार करके यहो मानना उचित है कि कहीं जीव कर्माधीन है और कहीं कर्म जीवाधीन है। वस्तुतः फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार का है-सोपक्रम, निरुपक्रम । जो कर्म प्रयत्न करने पर शान्त हो जाए, वह सोपक्रमरूप कर्म है, और जो प्रयत्न करने पर भी नहीं टलता, बन्ध के अनुसार ही फल देता है, वह निरूपक्रमरूप कर्म है। इन्हें ही क्रमशः दलिककर्म और निकाचितकर्म कहा जा सकता है। इन दोनों प्रकार के कर्मों की अपेक्षा पूर्वोक्त दोनों तथ्य फलित होते हैं--प्रयत्न करने पर कर्म जीव के अधीन हो सकते हैं, अन्यथा जीव कर्माधीन हो जाता है।' कर्म-बन्ध के हेतु और प्रकार पहले कहा जा चुका है कि जीव के राग-द्वषादि परिणामों के निमित्त से आकृष्ट होकर द्रव्यकर्म आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह घुल-मिल जाते हैं, बंध जाते हैं। इस प्रकार प्रवाहरूप से संसारी जीव अनादिकाल से अनन्तअनन्त बन्धनों में बँधे चले आ रहे हैं। ये शरीर, धन, ऐश्वर्य, परिवार आदि सब उसी शुभाशुभ कर्मबन्ध के परिणाम हैं। कई लोग यह शंका उठाया करते हैं कि शरीर, मकान, धन, परिवार आदि सब बन्धन हैं; क्या सचमुच ये बन्धन हैं ? क्या ये आत्मा को बाँधते हैं ? अथवा केवल कम ही आत्मा को बाँधते हैं ? __इसका समाधान शास्त्रों में इस प्रकार दिया गया है-कर्म के दो रूप हैं ... कर्म और नोकर्म । नोकर्म यानी ईषत्--(छोटा) कर्म । नोकर्म कर्म के फल के रूप में दृष्टिगोचर होता है । जैसे--शरीर, परिवार, धन, साधन आदि सब नोकर्म हैं। प्रज्ञापनासूत्र में नोकर्म को कर्मविपाक की सहायक सामग्री बताया गया है। नोकर्म भी दो प्रकार होते हैं-बद्धनोकर्म और अबद्धनोकर्म । जो दूध १ (क) विशेषावश्यकभाष्य वृ० १, ३ (ख) गणधरवाद २।२५, (ग) विपाकसूत्र अ० ३. सू० २० टीका ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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