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________________ १५२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका इस प्रकार कर्मवाद पर विश्वास से सुख-दुःख के झोंके आत्मा को विचिलित नहीं कर सकते। कर्मवाद पर विश्वास से व्यक्ति को ऐसो निश्चिन्तता हो जाती है, कि 'मेरे जैसे पूर्वकर्म होंगे, तदनुसार फल मिलने में कोई सन्देह नहीं है । कर्मों का ऋण तो मुझे देर-सबेर चुकाना ही पड़ेगा, फिर मन में ग्लानि न करके समभावपूर्वक ही इन्हें भोग लू. ताकि नये कर्मों का बन्ध न हो और पुराने कर्मों का क्षय हो जाए।' कर्मवाद पर विश्वास से कार्य में सफलता एवं हार्दिक प्रसन्नता प्राप्त होती हैं। प्रतिकूलता के समय निमित्तों को कोसने की अपेक्षा शान्तभाव से स्थिर रहने की अथवा केवल मेरे पर ही नहीं, बड़े-बड़ों पर विपत्तियाँ आई हैं, इसलिए क्यों घबराऊँ, इस प्रकार की सान्त्वनाभरी प्रेरणा कर्मवाद से मिलती है। दूसरे शब्दों में कर्मवाद का सन्देश दुःखों की ज्वालाओं से दग्ध मनुष्यों के घावों पर मरहम-पट्टी का काम करता है, उनके अशान्त हृदयों को शान्ति पहुँचाता है; दुःख और निराशा के गर्त में पड़े हुए मानव को आशा के विशाल भवन में पहुँचा देता है । कर्मवाद से लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं। इससे वर्तमान में दुःख सहन करने की क्षमता बढ़ती है, और भविष्य में जोवन को पवित्र बनाने की प्रेरणा मिलता है। __ कर्मवाद से यह भी प्रेरणा मिलती है कि आत्मा को जन्म-मरणरूप संसारचक्र में घुमाने के कारणभूत कर्म से अगर छुटकारा पाना हो तो कर्मों को आत्मा से अलग करने का पुरुषार्थ करना चाहिए । कर्मवादी स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अथवा विभिन्न प्रकार के दुःखों, समस्याओं, विघ्नों और संकटों से छुटकारा पाने अथवा पूर्वकृत अशुभ कर्मों को यथासम्भव शुभ में परिणत करने के लिए या वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए किसी देवी-देव, अदृश्य शक्ति या ईश्वर आदि के सामने नहीं गिड़गिड़ाता, भीख भी नहीं माँगता और न उन पर निर्भर ही रहता है । वह स्वयं स्वतन्त्र सत्पुरुषार्थ द्वारा कर्मों से मुक्त हो सकता है या अशुभ को शुभ में यथासम्भव बदल सकता है। कर्मवादी का यह दृढ़ विश्वास होता है कि आत्मा किसी रहस्यपूर्ण शक्ति या ईश्वर की शक्ति या इच्छा के हाथों की कठपुतली नहीं है। वह कर्म करने में, कर्मों को काटने में स्वतन्त्र है। कर्मवादी की दृढ़ आस्था होती है विकास की चरमसीमा को प्राप्त व्यक्ति-परमात्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त होता है । यद्यपि सभी आत्माओं में उनके जैसी शक्ति विद्यमान है, किन्तु हमारी शक्तियाँ कर्मों से आवृत-अविकसित हैं। उनका विकास
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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