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________________ कर्मवाद : एक मीमांसा कर्मवाद : आस्तिक्य की सुदृढ़ आधारशिला आत्मवाद और लोकवाद के साथ कर्मवाद का अटूट सम्बन्ध है । जिसे आत्मा की शक्ति का भान हो जाता है, वह लोक का स्वरूप जानकर लोक में रहता हुआ भी निर्लेप रह सकता है, अजीवों के साथ तथा उनके पड़ोस में रहता हुआ भी उनके प्रति राग-द्वेष या इष्टवियोग अनिष्टसंयोग के समय आत्त ध्यान नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि जीव (आत्मा) और कर्मों का संयोग (साहचर्य) सोने और मिट्टी के संयोग की तरह प्रवाहरूप से अनादि होते हुए भी जैसे सोना अग्नि आदि के द्वारा मिट्टी से पृथक् हो जाता है, वैसे ही आत्मा भी तप, संयम, संवर, निर्जरा आदि उपायों से कर्म से पृथक् हो सकता है।' इसी कारण कर्मवाद आस्तिक्य की एक सुदृढ़ आधारशिला है । हम क्या हैं ? (आत्मवाद), हम कहाँ-कहाँ से आते हैं और कहाँ-कहाँ चले जाते हैं (लोकवाद) तथा हमें क्या करना है, क्या नहीं ? ( कर्मवाद) तथा हम विकृति से प्रकृति में, परभाव या विभावं दशा से स्वभाव दशा में किसके माध्यम से आ सकते हैं ? (क्रियावाद ) – इन सब बातों का ज्ञान जिनोक्त शास्त्रों से प्राप्त करके हम श्रुतधर्म की सांगोपांग आराधना कर सकते हैं । संसार की विविधताओं का कारण : कर्म यदि सभी जीव स्वभाव से समान हैं, मुक्त आत्मा के समान ही सबकी आत्मा शुद्ध हैं, तब फिर संसार में इतनी विविधता और विचित्रता क्यों ? एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में, तथा पंचेद्रियों में भी नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार प्रकारों के भी प्रत्येक के असंख्य - असंख्य प्रकार हैं । एक मनुष्यजाति को ही ले लें, उसमें भी १४ लाख योनियाँ हैं और उनमें भी आकृति, प्रकृति, सुख-दुःख, विकास - अविकास आदि के भेद से करोड़ों प्रकार के मनुष्य हैं । इतनो विषमता, विविधता और विचित्रताओं का कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए । अगर
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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