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________________ श्रुतधर्म का स्वरूप | ६७ (१३-१४) अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य- इन दोनों पर सम्यकुश्रुत में प्रकाश डाला गया है । सम्यक्शास्त्र : स्वरूप, महत्त्व और कसौटी आचार्य समन्तभद्र और आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की दृष्टि में सम्यकशास्त्र की कसौटी इस प्रकार है 'आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टाविरुद्ध कम् 1 तत्त्वोपदेशकृत् सार्वं शास्त्र कापथघट्टनम् ||" (१) जो आप्त (सर्वज्ञ - सर्वदर्शी वीतरागपुरुषों) द्वारा मूल में कथित हो, (२) जिसका कोई उल्लंघन न कर सकता हो, (३) जो प्रत्यक्ष और अनुमान से विरुद्ध न हो, (४) तत्त्व का उपदेश करने वाला हो, (५) सबका हित बताने वाला हो, और (६) कुमार्ग का निषेधक हो, वही सच्चा शास्त्र है । ऐसे शास्त्र को ही सम्यकश्रुत कहना चाहिए । साधक जब साधनापथ पर आगे बढ़ता है, तब उसके सामने अनेक उलझनें आती हैं, कई बार वह धर्मसंकट में पड़ जाता है कि इस मार्ग का अनुसरण करूँ या उस मार्ग का ? सभी साधक विशिष्ट ज्ञानी नहीं होते, अधिकांश मुमुक्षु साधकों का ज्ञान सीमित होता है, वीतरागदेव उनके समक्ष प्रत्यक्ष नहीं होते, निःस्पृह निर्ग्रन्थ गुरु का समागम मिलना भी दुर्लभ हो जाता है, ऐसी स्थिति में मन, बुद्धि एवं इन्द्रियों की पहुँच से परे की, अभी तक अपरिचित, अज्ञात वस्तु के सम्बन्ध में निर्णय करना हो, अथवा गुरुपरम्परा से सुनी हुई बात औत्सर्गिक हो, मगर निर्णय किसी आपवादिक स्थिति में करना हो तो साधक क्या करे ? किसका अवलम्बन ले ? कत्तव्यअकत्तव्य, हिताहित, सुमार्ग- कुमार्ग का निर्णय कैसे करे ? इसके लिए सुशास्त्र ही एकमात्र मार्गदर्शक होता है । भगवद्गीता में भी स्पष्ट कहा हैतस्माच्छास्त्र प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ । -- -कार्य और अकार्य की व्यवस्था के लिए शास्त्र ही प्रमाणभूत होता है । शास्त्र के द्वारा साधक साधनापथ को देखकर चलता है । गुरु या मार्गदर्शक धर्मनायक प्रत्येक समय साथ नहीं रहता । साधक को प्रत्येक परिस्थिति में जो कुछ देखना, सोचना, समझना और करना होता है, वह १ रत्नकरण्ड श्रावकाचार और न्यायावतार | २ भगवद्गीता अ. १६, श्लो. २४
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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