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________________ २ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका एक चोर ने चौर्यकर्म धारण कर रखा है, वह भी उनके विचारानुसार धर्म हो जाएगा। इसी प्रकार एक शिकारो ने पशुवध धारण कर रखा है; एक व्यभिचारी पुरुष या वेश्या ने व्यभिचार-दुराचार धारण कर रखा है; एक कसाई ने पशुहत्याकर्म धारण कर रखा है, पूर्वोक्त भ्रान्त अर्थ के अनुसार तो इन सबके पापकृत्यों का धारण भी धर्म कहलाएगा। किन्तु यह अर्थ भ्रान्त एवं विपरीत है। अतः लक्षण के अनुसार धर्म का पूर्वोक्त अर्थ ही समीचीन है। केवलीप्रज्ञप्त धर्म ही ग्राह्य धर्म का अर्थ समझने के बाद यह जानना आवश्यक है कि धर्म शब्द से कौन-सा धर्म ग्राह्य है और क्यों ? धर्म के सम्बन्ध में बड़ी भारी गडबडी चल रही है। पंथों और सम्प्रदायों के चक्कर में पड़कर यह · महान् कल्याणकारी एवं आराध्य तत्त्व अपना महत्त्व ही खो बैठा है। विश्व में धर्म के नाम से अनेक मत, पंथ, सम्प्रदाय चल रहे हैं। जो धर्म शान्ति और सुख का प्रदाता था, उसको लेकर बहत-से सम्प्रदायों और मतों में आए दिन संघर्ष, कलह, क्लेश, वादविवाद एवं सिरफुटौव्वल होतो है। इन दुष्प्रवत्तियों को देखकर कैसे कहा जा सकता है कि धर्म सुख-शान्ति का दाता या समाज का धारण-पोषण करने वाला है। विभिन्न धर्म संप्रदायों के पारस्परिक द्वन्द्वों को देखकर धर्म, उपहास की वस्तू बन गया है। इसी कारण ग्राम, नगर, प्रान्त, राष्ट्र, समाज या संघ में उन्नति और सुखशान्ति वद्धि के बदले अवनति, अधोगति और दुःख तथा अशान्ति में वद्धि हो रही है। इसे देखकर कई अनभिज्ञ या नास्तिक लोग कह बैठते हैं कि इससे तो अच्छा था, ये धर्म ही न रहते, इन्हें ही देशनिकाला दे दिया जाता तो इतनी अशान्ति और संघर्ष तो न होता। परन्तु ऐसा कहने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि कि वष्णव, शैव, शाक्त, वदिक, वौद्ध, मुस्लिम, ईसाई आदि विशेषण वाले धर्म एक तरह से सम्प्रदाय हैं । इनमें धर्म हो सकता है, परन्तु वास्तविक धर्म ये नहीं है । सम्प्रदाय आदि पात्र (बर्तन) के समान है, और धर्म अमृत तुल्य है। अमृत रखने के लिये बर्तन आवश्यक तो है, परन्तु बर्तन को ही अमृत मानना भूल होगी। इसी प्रकार सम्प्रदाय को ही धर्म मानना भूल होगी। ____कलह, द्वन्द्व या संघर्ष, इन सम्प्रदायों के कारण ही होते हैं, शुद्ध धर्म के कारण नहीं । शुद्ध धर्म रूप अमृत ने तो अतीतकाल में लाखों मानवों को तारा है, वर्तमान में भी तर रहे हैं और भविष्य में भी तरेंगे । शुद्ध धर्म का पालन तो समाज और राष्ट्र में सुख शान्तिवर्द्धक है, आत्मा का कल्याण
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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