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________________ अरिहन्तदेव स्वरूप : ४५ तात्पर्य यह है--क्षणस्थायी द्रव्यसमाधि अन्त में असमाधिकारक सिद्ध होती है, किन्तु भावसमाधि-जो कि आत्माधीन और स्थायी होती है, वह इस प्रकार की नहीं होती। ___भावसमाधि तीन प्रकार की है-(१) ज्ञानसमाधि (२) दर्शनसमाधि और (३) चारित्रसमाधि ।। ज्ञान में आत्मा जब निमग्न हो जाती है, तब ज्ञानसमाधि उपलब्ध होती है । जिस समय ज्ञान में पदार्थों का यथावस्थित अनुभव होने लगता है, तब आत्मा में अलौकिक आनन्द उत्पन्न हो जाता है। वह आनन्द का समय समाधिरूप ही होता है। जब जिनोपदिष्ट तत्त्वों पर दृढश्रद्धा, रुचि एवं प्रतीति हो जाती है, शंका, कांक्षा आदि दोष उत्पन्न नहीं होते, देव-गुरु-धर्म पर अविचल श्रद्धा हृदय में हो जाती है, यहाँ तक कि कोई भी देव, दानव, मानव या तिर्यंच उसे धर्मसिद्धान्त, धर्मक्रिया-व्रत, नियम, देव-गुरु धर्मश्रद्धा आदि से भय, प्रलोभन आदि दिखाकर विचलित करना चाहे तो भी उसकी आत्मा सुमेरु पर्वत की तरह अडोल, अकम्प एवं अविचल रहे, तब समझना चाहिए कि चित्त दर्शनसमाधि में स्थिर हो गया है। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म, सामायिक, तपस्या, संयम, संवर, धर्मक्रियाएँ आदि सब चारित्र हैं . इस प्रकार चारित्र-पालन किसी प्रकार के प्रदर्शन, आडम्बर, निदान, स्वार्थ, यशकीर्ति, प्रतिष्ठा, प्रलोभन, भय, अहंकार आदि से रहित होकर केवल कर्मनिर्जरा अथवा वीतरागता प्राप्ति के उद्देश्य से उत्साह एवं श्रद्धापूर्वक किया जाए तो चित्त चारित्र समाधि में स्थिर हो जाता है। ___ दशवकालिक सूत्र में उल्लिखित चार प्रकार की समाधि भी भावसमाधि है । वह इस प्रकार है-(१) श्रुतसमाधि, (२) विनयसमाधि, (३) आचारसमाधि और (४) तपःसमाधि । श्रुत समाधि चार प्रकार से होती है, यथा-(१) मुझे शास्त्र का अर्थ उपलब्ध हो जाएगा, इस दृष्टि से, (२) एकाग्रचित्त हो जाऊँगा, इस दृष्टि से, (३) आत्मा को स्वभाव में स्थित करने की दष्टि से, (४) स्वयं स्वभाव में स्थित होकर दूसरों को स्वभाव में स्थित करूंगा, इस दष्टि से अध्ययन (स्वाध्याय) करने से। विनय समाधि के भी चार प्रकार हैं-- (१) गुरु आदि हितकर अनुशासन
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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