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________________ श्रवण का प्रकाश; आचरण में.... १६ ध्वनि से परिषद् का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते जाते थे। सेठजी को देखकर लगता था-परिषद् में धन्ना सेठ या शालिभद्र विराजित हों। मूनि के व्याख्यान का विषय था-कथनी करनी में अन्तर ! वे कह रहे थे-"धर्मात्मा व्यक्ति को धर्म की आड़ में चोरी, झूठ, छल, मिलावट, बेईमानी आदि दुर्गुण अवश्य ही छोड़ देने चाहिए, क्योंकि ये बुराइयाँ धर्म के साथ मेल नहीं खातीं।" सेठजी बड़े प्रेम से सुन रहे थे। उसी परिषद् में एक चोर मुनि के उपदेश को ध्यानपूर्वक सुन रहा था । उसे अपने दुष्कृत पर इतना पश्चात्ताप हुआ कि उसने अपनी चौर्यवृत्ति सदा के लिए छोड़ दी। व्याख्यान समाप्त होने के पश्चात् परिषद् उठकर चली गई। सभी अपने-अपने कामों में लग गये। प्रवचन श्रवण-रसिक सेठजी भी अपनी दुकान पर पहुँचे । संयोगवश वह चोर भी इन्हीं सेठजी की दुकान पर शक्कर लेने पहुँचा । सेठजी ने तराजू उठाया और लगे डंडी मारने । मानो वे भूल ही गये हों कि अभी-अभी मुनिवर के व्याख्यान में क्या सुनकर आया है। चोर, जो अपनी चौर्यवृत्ति को तिलांजलि दे चुका था, बड़े असमंजस में पड़ गया और बोला--'सेठजी ! परिषद् में तो आप श्रेष्ठ प्रवचन रसिक श्रोताओं में थे, किन्तु आचरण तो यहाँ कुछ और है।" सुनकर सेठजी तुनक कर बोले--"मूर्ख ! तू मुझे शिक्षा दे रहा है। सौदा लेना हो तो ले, वरना अपना रास्ता पकड़।" चोर भला कहाँ चूकने वाला था। वह तत्काल बोल पड़ा एक बार के श्रवण से मुझे हो गया ज्ञान । तुम सुनकर कोरे रहे, जान-जान अनजान ॥ दायित्व कान का कम, पैर का अधिक आप कहेंगे कि क्या सुनने मात्र से व्यक्ति तदनुसार आचरण कर लेगा ? मैं समझता हूँ, सभी व्यक्तियों से ऐसी अपेक्षा रखना ठीक नहीं होगा । कई व्यक्ति, जो मिथ्यात्वी, अभवी या नियाणा किये हुए होते हैं, ऐसे और इस प्रकार के व्यक्ति धर्म-प्रवचन तो सुन सकते हैं, परन्तु उस पर अमल करना उनके वश की बात नहीं । क्योंकि ऐसे लोग धर्म-श्रवण की भाव-परिणति के अयोग्य होते हैं। परन्तु ऐसे लोग जो सम्यग्दृष्टि हैं, मुमुक्षु हैं, जिज्ञासु हैं, श्रावक हैं, उनके द्वारा बार-बार धर्मश्रवण करने पर उनसे तो आचरण की अपेक्षा रखी ही जा सकती है। परन्तु इसमें दो मत नहीं हैं कि आत्मा के विकास एवं सद्गुणों के अभ्यास के लिए श्रवण के
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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