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________________ ८६ पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * कहत है त्रिलोक ऋषि, सुधारे ज्यों गुरु शिष्य, गुरु उपकारी नित, लीजे बलिहारी है ॥ मित्र गुरु गुरु मात, गुरु सगा तात, गुरु भूप गुरु भ्रात, गुरु हितकारी है। गुरु रवि गुरु चन्द्र, गुरु पति गुरु इन्द्र, देत देवानन्द, गुरु पद भारी है ॥ गुरु " गुरु देत ज्ञान ध्यान, गुरु देत दान मान, गुरु देत मोक्ष स्थान, सदा उपकारी है। कहत है त्रिलोक ऋषि, भली भली देवें सिख, ऐसे गुरुदेव जी को, वन्दना हमारी है ॥" गुरु दर्जी- जैसे दर्जी कपड़े के थान को लेकर व्यक्ति के शरीर प्रमाण अनुसार कपड़े को कतरकर उस वस्त्र से पेंट, शर्ट, बुशर्ट, कुर्ता, कमीज, कच्छा, बनियान आदि सींकर तैयार कर देता है । वैसे ही गुरु शिष्य की प्रकृति के अनुसार और उसकी शक्ति के अनुसार दुर्गुणों की कतर दूर करके, सद्गुणों का संगठन करके, सद्गुणों का बीजारोपन करके, उसे धर्म से, आत्मा से जोड़ देता है। गुरु बढ़ई - जैसे बढ़ई लड़की लेकर उससे खिड़की, दरवाजे, चौखट, बक्सा, चकला-बेलना, हल-जुआ, सीढ़ी, मेज, कुर्सी, खड़ाऊँ, पायें आदि भाँति के बर्तन तैयार कर देता है। वैसे ही गुरु भी अनघड़ी लकड़ी के समान शिष्य को सुधारकर यथायोग्य व्याख्याता, कवि, तपस्वी, आचार्य, उपाध्याय, गणी, गणाविच्छेदक, प्रवर्त्तक आदि की योग्यता उत्पन्न करता है। गुरु सुनार - जैसे सुवर्णकार सोने को कसौटी पर घिसकर अग्नि में तपाकर उसकी परीक्षा करता है कि सोना शुद्ध है या नहीं । सुनार जैसे अनेक आभूषणों का निर्माण करता है। जैसे - कुण्डल, कंगन, हार, अँगूठी, पाजेब, चूड़ियाँ आदि बनाता है। इसी प्रकार गुरु शिष्य की योग्यता की परीक्षा करके तभी उसे शिष्य रूप में अपनाता है और शिष्य को योग्यता प्रदान करता है। शिष्य की योग्यता को देखकर उन्हें यथायोग्य कार्य सौंपता है । गुरु कुम्भकार - कई बार ऐसा मालूम होता है कि गुरु शिष्य के प्रति अत्यन्त कठोर व्यवहार कर रहे हैं। गुरु के द्वारा किये जाते हुए कठोर व्यवहार को देखकर सुविनीत और समर्पित शिष्य उसे अपने लिए महान् हितकर समझता है, वह उन्हें अपना हितैषी और उपकारी समझता है, लेकिन जिसके हृदय में गुरु के
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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