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________________ प्रथम फल जिनेन्द्र पूजा ५३ दे दे तो भी यदि वह साधु-मर्यादा के अनुकूल नहीं है तो साधु उस वस्तु को ग्रहण न करे । अगर कोई वस्तु ग्रहण करनी भी है तो शक्रेन्द्र की ही आज्ञा लेकर वह वस्तु ग्रहण करे | किन्तु बिना आज्ञा के न कोई वस्तु ग्रहण करे और न उसका उपयोग ही करे। जो ऐसा नहीं करता है, वह अचौर्य व्रत की आराधना कर रहा है । अब तीसरे फूल की चर्चा का विश्लेषण आपके समक्ष आ चुका है। अब हम चौथे फूल की चर्चा करेंगे, उस चौथे फूल का नाम है - ब्रह्मचर्य । ४. ब्रह्मचर्य महाव्रतों की परिगणना में यद्यपि ब्रह्मचर्य का चतुर्थ क्रम है, किन्तु महत्त्व की दृष्टि से यह सबसे श्रेष्ठ है। पूजा के आठ पुष्पों में ब्रह्मचर्य भी चतुर्थ पुष्प है। भगवान महावीर ने 'तं बंभं भगवंतं' कहकर ब्रह्मचर्य स्वयं भगवान है। जैसे श्रमणों में तीर्थंकर सर्वश्रेष्ठ है वैसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है । " तवसे वा उत्तम बंभचेरं । " - एक ब्रह्मचर्य व्रत की जो आराधना कर लेता है, वह सभी व्रत नियमों की आराधना कर लेता है । ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्मचर्य में दो शब्द हैं - ब्रह्म + चर्य = ब्रह्मचर्य । ब्रह्म का अर्थ है - आत्मा तथा चर्य का अर्थ है - रमण करना । जो आत्मा में रमण करता है, वह ब्रह्मचर्य है । ब्रह्म शब्द के तीन रूप हैं - वीर्य, आत्मा और विद्या । चर्म शब्द के भी तीन रूप हैं'रक्षण, रमण और अध्ययन । इस प्रकार ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं - वीर्य यानि (शक्ति) का रक्षण, आत्मा में रमण करना और विद्या का अध्ययन करना । महर्षि पंतजलि ने ‘योगदर्शन' में ब्रह्मचर्य की परिभाषा करते हुए कहा है "ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्य लाभः । " - ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना कर लेने पर अपूर्व मानसिक शक्ति और शरीर बल प्राप्त होता है। जब तक व्यक्ति अपने वीर्य और शक्ति का रक्षण नहीं करता, वहाँ तक शरीर ओजस्वी तेजस्वी नहीं बनता । शरीर - विज्ञान की दृष्टि से शारीरिक शक्ति का केन्द्र वीर्य और शुक्र है । शरीर के इस महत्त्वपूर्ण अंश को अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी बनाना ब्रह्मचर्य है । वीर्य के विनाश से जीवन का सर्वतोमुखी पतन होता है।
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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