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________________ * प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा * * ५१ * -सत् वह है, जिसका कभी भी नाश नहीं होता और जो नष्ट हो जाता है वह सत् नहीं है। जो असत् है, उसका कभी जन्म नहीं होता। वह कभी अस्तित्व में नहीं आता और जो सत् है, वह कभी भी नष्ट नहीं हो सकता। सत् हर समय विद्यमान रहता है। वह अतीतकाल में भी था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। वह त्रिकालवर्ती है। जैनदर्शन के महान् तत्त्वचिन्तक आचार्य उमास्वाति ने सत् की परिभाषा करते हुए लिखा है "उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत्।" -जो पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है वह सत् है। जो वस्तु जैसी देखी है या सुनी व समझी है, उस वस्तु को जन-जन के हित के लिए उसी रूप में कहना, वचन के द्वारा उस तथ्य को प्रकट करना सत्य है। ___ एक जिज्ञासु ने भगवान महावीर से पूछा-“इस विराट् विश्व में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो सारपूर्ण है ?" · भगवान ने कहा “सच्चं लोगम्मि सारभूयं।" -इस लोक में सत्य ही सारभूत है। सत्यरहित जो भी है, वह निस्सार है, क्योंकि सत्य समस्त भावों का प्रकाश करने वाला है।" सत्य की महत्ता प्रदर्शित करते हुए भगवान महावीर ने कहा-“सत्य महासागर से भी अधिकतम गम्भीर है, चन्द्र से भी अधिक सौम्य है और सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी है।" ___ भारतीय संस्कृति के महान् चिन्तकों ने कहा है-सत्य सुन्दर हो, कल्याणकारी हो। जो केवल सुन्दर ही है और कल्याणकारी नहीं है, तो वस्तुतः वह सत्य नहीं है। इसलिए 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' कहा गया है। सत्य एक ऐसी साधना है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति स्वीकार कर सकता है। व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार उसे ग्रहण कर सकता है। ‘स्कन्द पुराण' में सत्य वचन की चर्चा करते हुए कहते हैं "सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥" अर्थात् सत्य बोलो, प्रिय बोलो, किन्तु अप्रिय सत्य कभी मत बोलो और प्रिय असत्य भी मत बोलो। परहित में वाक् और मन का यथार्थ भाव ही सत्य है। सत्य प्रतिष्ठित व्यक्ति को वाक् सिद्धि प्राप्त होती है। यदि कोई व्यक्ति बारह वर्ष तक पूर्ण रूप से सत्यवादी रहे तो उसकी प्रत्येक बात यथार्थ होगी।
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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