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________________ तीसरा फल : सत्त्वानुकम्पा : जीवदया * चम्पानगरी में धर्मघोष नाम के आचार्य आये हुए थे। उनके शिष्य धर्मरुचि अणगार, एक मास की तपस्या का पारणा लेने के लिए भिक्षाटन करते हुए नागश्री के गृह द्वार पर आ गए। नागश्री ने मुनि को आते देखा तो सोचा - 'चलो अच्छा हुआ। कुरडी अपने आप घर पर आ गई। वह कड़वे तुम्बे का साग इस मुनि को ही क्यों न दे दूँ? बाहर फेंकने को नहीं जाना पड़ेगा।' १०९ मुनि ने आहार की शुद्ध एषणा करके ज्यों ही पात्र आगे किया कि नागश्री ने एक ही झटके से तुम्बी का सब का सब साग बहुत - बहुत और मना करते हुए भी मुनि के पात्र में उड़ेल दिया। मुनि धर्मरुचि आगे नहीं गये । क्षुधा - पूर्ति के लिए उन्हें साग ही पर्याप्त लगा। परन्तु खाली साग ही लेकर गुरु के पास लौट आये। गुरुदेव ने उस साग को देखा तो बोले - " वत्स ! यह तो कालकूट विष है, इसे किसी प्रासुक ( जीव-जन्तुरहित ) स्थान पर परठ आओ। इसे खाना तो विष-भक्षण करना है । मुनि जी गए। गवेषणा की। एक शिला पर साग की एक-दो बूँदें डालों । साग की सुगन्ध से वहाँ हजारों चींटियाँ खिंची चली आईं। साग को चखते ही उनका प्राणान्त हो गया । धर्मरुचि अणगार के हृदय में करुणा का सागर लहराने लगा, उन्हें दया आई। उन्होंने समस्त स्वाग को उदरस्थ कर लिया। जहर किसी का बन्धु नहीं । साग के तीक्ष्ण जहर का असर मुनि के शरीर पर होने लगा, नख नीले पड़ गए, चेहरा विवर्ण हो गया, पेट में भयंकर दाह लग गई, समूचा शरीर उसके तीव्र प्रभाव से आक्रांत हो गया, परन्तु मुनि का मन परम प्रसन्न था। वहाँ करुणा का अमृत छलछला रहा था । दया की रसधारा बह रही थी । कड़वा तुम्बा खाकर भी मन मधुरता से भरा था। जहर देने वाली के प्रति भी उनके मन में करुणा का अमृत छलक रहा था। यही तो उनकी साधुता थी - कटुता के बदले में मधुरता । मुनि ने शांतभाव से यथाविधि अनशन किया, आत्म-आलोचना की, जीवन की अन्तिम समाधि के हेतु कषायभाव का उपशमन कर संसार के समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री और करुणा की भावना भाते हुए शीघ्र ही देह छोड़कर ऊर्ध्वलोक चल दिये। सर्वार्थसिद्धि नामक महाविमान में एकभवी अनुत्तरवासी देव हो गए । सर्वार्थसिद्ध में तीन शब्द' हैं - सर्व + अर्थ + सिद्ध। उनके सभी अर्थ अर्थात् प्रयोजन सिद्ध हो गए। तो कैसे हुए उनके सभी प्रयोजन सिद्ध ? दया पाली तभी न ? दया से ही आत्मा की सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं, उसे लौकिक और पारलौकिक सुख मिलता है।
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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