SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *५०* आठवाँ बोल : योग पन्द्रह - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- __ मन, वचन व काय; इन तीनों योगों में काययोग संसार के प्रत्येक जीवों में होता है चाहे वे स्थावर, विकलेन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी, पंचेन्द्रिय जीव हों। स्थावर जीवों में केवल काययोग, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी जीवों में काय और वचनयोग तथा संज्ञी, पंचेन्द्रिय, तिर्यंच आदि जीवों में तीनों योग होते हैं। मन, वचन व काय की शुभाशुभ प्रवृत्ति एक होते हुए भी मन, वचन व कायारूप निमित्त भेद की अपेक्षा से तीन प्रकार की और उत्तर भेद की अपेक्षा से पन्द्रह प्रकार की कही गई है। मनोयोग ___ यह मन की प्रवृत्ति या मन का व्यापार है। यह दो प्रकार का है-एक द्रव्य मनोयोग और दूसरा भाव मनोयोग। मन की प्रवृत्ति के लिए जो मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण किए जाते हैं वे द्रव्य मनोयोग और उन गृहीत पुद्गलों के सहयोग से जो मनन-चिंतन होता है वह भाव मनोयोग है। भाव मन (Subjective mind सब्जेक्टिव माइण्ड) का सम्बन्ध आत्मा से है क्योंकि वह ज्ञानरूप है अतः आत्मा और भाव मन ये दोनों एक हैं, अलग-अलग नहीं जबकि द्रव्य मन (Objective mind-ऑब्जेक्टिव माइण्ड) का सम्बन्ध मस्तिष्क (Brain ब्रेन) और इन्द्रियों (Senses सैन्सस) के साथ रहता है। भाव मन के अभाव में आत्मा को इन्द्रिय जन्य ज्ञान नहीं होता। इसलिए जितने भी संसारी समनस्क जीव हैं उनमें द्रव्य मन अवश्य विद्यमान रहता है। मुक्त आत्माओं के लिए द्रव्य मन की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि ये तो सम्पूर्ण ज्ञानमय हैं। इन्द्रियाँ बाह्य जगत् का ज्ञान कराती हैं। ये इस ज्ञान को मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं। मस्तिष्क इसे द्रव्य मन को, द्रव्य मंन इसे भाव मन को और भाव मन आत्मा को यह ज्ञान कराता है। इन्द्रियों द्वारा आत्मा तक इस ज्ञान की सम्प्रेषणीयता (पहुंच) का यह एक क्रम है। ___मन की प्रवृत्ति कभी सत्य, कभी असत्य, कभी सत्यासत्य (मिश्र रूप) और कभी लोक-व्यवहार रूप होने से मनोयोग के चार भेद किए गए हैं। यथा (१) सत्य मनोयोग, (२) असत्य मनोयोग, (३) मिश्र मनोयोग, (४) व्यवहार मनोयोग।
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy