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________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १५ पंचेन्द्रिय जाति के दूसरे प्रकार के जीव हैं मनुष्य । मनुष्यं भी दो प्रकार के होते हैं - एक सम्मूर्च्छिम मनुष्य और दूसरे गर्भज मनुष्य । सम्मूर्च्छिम मनुष्य मनरहित, असंज्ञी प्राणी होते हैं । ये मनुष्य के मल, मूत्र, श्लेष्म, खखार, वमनउल्टी, पित्त, रस्सी - पीप, रुधिर- रक्त, वीर्य रज, मृतक शरीर, स्त्री-पुरुष के संयोग व नगर की गटर आदि चौदह अशुचि स्थानों में जन्म लेते रहते हैं । इनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अन्तर्मुहूर्त्त मानी गई है। एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय वाले सभी जीव सम्मूर्च्छिम होते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य भी सम्मूर्च्छिम होते हैं। गर्भ और उपपात जन्म वालों के अतिरिक्त शेष जीव सम्मूर्च्छिम हैं। इस दृष्टि से देव और नारक कभी भी सम्मूर्च्छिम जीव नहीं होते क्योंकि इन दोनों का जन्म उपपात से होता है। उपपात जन्म में माता-पिता का कोई संयोग नहीं होता है। जीव स्वयं ही उत्पत्ति स्थान के वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करके अपना शरीर निर्मित कर लेता है। उपपात जन्म का एक निश्चित उत्पत्ति स्थान होता है । जैसे स्वर्ग में उपपात पुष्प शय्या तथा नरक में कुम्भी आदि । वैक्रिय शरीर और निश्चित उत्पत्ति स्थान ही उपपात जन्म की विशेषता है। गर्भज मनुष्य गर्भ में पैदा होते हैं। इनके मन होता है। ये संज्ञी कहलाते हैं । गर्भज मनुष्यों के भी दो भेद हैं- एक कर्मभूमिक और दूसरे अकर्मभूमिक। कर्मभूमि के जीव कर्मभूमिक कहलाते हैं । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, व्यवसाय, शिल्प-कला आदि के द्वारा ये लोग श्रम - कर्मपूर्वक अपना जीवन निर्वाह करते हैं । दूसरे प्रकार के मनुष्य अकर्मभूमि में रहते हैं । यहाँ असि, मसि, कृषि आदि कर्मों का अभाव होता है । यहाँ के जीवन - निर्वाह का मुख्य आधार है प्राकृतिक साधन, प्राकृतिक उपज, यानी कल्पवृक्ष आदि । पंचेन्द्रिय जीवों में तीसरे और चौथे प्रकार के जीव हैं - देव और नारक । नारक के विषय में यह कहा जाता है कि ये अत्यन्त क्रूर स्वभाव वाले, अत्यन्त विकराल और भयानक आकृति से युक्त होते हैं । परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते हैं। ये पृथ्वी के नीचे अधो लोक / पाताल लोक में निवास करते हैं जबकि देव नारकों के विपरीत स्वभाव वाले होते हैं। ये अत्यन्त सौम्य स्वभाव वाले, सुन्दर व मनोहारी होते हैं। ये अपना जीवन विनोद विलास में ही व्यतीत करते हैं । इनका शरीर विशेष प्रकार का तथा वैक्रियक होता है अर्थात् अपनी इच्छानुसार अपने शरीर को छोटा, बड़ा, हल्का, भारी, एक या अनेक रूपों वाला बना
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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