SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ८ + पहला बोल: गतियाँ चार (३) ज्योतिष्क देव. (४) वैमानिक देव । इनके भी अनेक भेद-प्रभेद हैं । देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष व उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की है। देव मरकर न तो देव हो सकता है और न नारक किन्तु वह अपने शुभाशुभ कर्म - परिणामों के आधार पर मनुष्य या तिर्यंच गति में जा सकता है। इन देवों के 'कुल' २६ लाख करोड़ माने गये हैं । इन चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान भी अलग-अलग हैं । भवनपतियों का निवास स्थान रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन के भाग को छोड़कर शेष मध्य भाग है । व्यन्तर इस ऊपर के एक हजार योजन के भाग से ऊपर, नीचे के सौ-सौ योजन को छोड़कर बीच के ८०० योजन भाग में रहते हैं। ज्योतिष्क देव पृथ्वी से ऊपर ७९० योजन से लेकर ९०० योजन तक रहते हैं और वैमानिक देव ऊर्ध्व लोक में विमानों में उत्पन्न होते हैं। चारों देवों के कुल ६४ इन्द्र होते हैं जिनमें २० इन्द्र भवनवासी देवों के, ३२ इन्द्र वाणव्यन्तरों के, २ इन्द्र ज्योतिष्क देवों के तथा १० इन्द्र वैमानिक देवों के होते हैं। इन चार देवों में भवनपति और व्यन्तर देवों में कृष्ण, नील, कापोत व पीत अथवा तेजोलेश्याएँ ही सम्भव हैं जबकि ज्योतिष्क देवों में पीत या तेजोलेश्या पायी जाती हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर देवों की लेश्याएँ क्रमशः अधिक विशुद्ध होती जाती हैं और परिणाम भी शुभ होते जाते हैं। वैमानिक देवों के विमानों की यह विशेषता है कि वे अतिशय पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं । उनमें निवास करने वाले देव भी विशेष पुण्यवान होते हैं। देवगति के बन्ध के चार मूल कारण हैं (१) सराग संयम, (२) संयमासंयम - श्रावकत्व, (३) बाल तप, (४) अकाम निर्जरा | ( आधार : चार गति का वर्णन - प्रज्ञापना पद २३, चार गति के कारणों का वर्णन - स्थानांग, स्थान ४ )
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy