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________________ पच्चीसवाँ बोल : चारित्र पाँच ( पाँच प्रकार के चारित्र का स्वरूप) (१) सामायिक चारित्र, (२) छेदोपस्थापन चारित्र, (३) परिहार विशुद्धि चारित्र, (४) सूक्ष्म संपराय चारित्र, (५) यथाख्यात चारित्र । मनुष्य स्वभावतः कुछ न कुछ शुभ या अशुभ करता रहता है। उसकी यह प्रवृत्ति या क्रिया जब अशुभ से शुभ की ओर होती है तब वह चारित्र (Conduct — कण्डक्ट) का रूप लेती है । चारित्र का अर्थ है शुभ में प्रवृत्त होना और अशुभ से निवृत्त होना । शुभ में प्रवृत्त होने के लिए या अशुभ से निवृत्ति पाने के लिए वह अपने आत्म-स्वरूप में स्थित होता है। आत्म-स्वरूप में स्थित होने के लिए जितने भी उसके सञ्चित कर्म हैं उन्हें वह रिक्त करता है अर्थात् वह कर्मास्रव का निरोध करता है। अर्थात् उसकी समस्त प्रवृत्तियाँ कर्मक्षय के लिए होती हैं। कर्मक्षय हेतु की जाने वाली समस्त प्रवृत्तियाँ आत्मा को शुद्ध दशा में रखने का प्रयत्न करती हैं । इस प्रकार चारित्र में समस्त प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होती हैं, यानी संसार बढ़ाने वाली क्रियाओं से विमुख होकर मोक्ष प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहती हैं जिससे आत्मा के परिणामों में विशुद्धि या निर्मलता आती है। अन्ततः आत्म-परिणामों को विशुद्ध बनाना ही चारित्र है । इसे शास्त्रीय भाषा में इस प्रकार से कह सकते हैं कि आत्मा के विरति रूप परिणाम चारित्र है । यह परिणाम मोहनीय कर्म के क्षय से या उपशम से या क्षयोपशम से प्रकट होता है। चारित्र के दो रूप हैं - एक निश्चय चारित्र (Noumenal conduct — नॉमीनल कण्डक्ट) और दूसरा व्यवहार चारित्र (Behavioural or External conduct — बिहेवियरल और एक्सटर्नल कण्डक्ट) । जीव की अन्तरंग विरागता या साम्यता निश्चय चारित्र है और उसके लिए बाह्य क्रिया-कलाप, व्रत, समिति, गुप्त आदि का पालन व्यवहार चारित्र है । यह चारित्र आस्रव का निरोध करने वाले संवर के सत्तावन भेदों में परिगणित है।
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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