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________________ * १६६ * तेईसवाँ बोल : साधु के पाँच महाव्रत श्रमण साधु अन्तरंग से भी और बहिरंग से भी पूर्णतः अपरिग्रही होते हैं। इनमें पदार्थों के प्रति ही नहीं अपने शरीर के प्रति भी किंचित् मात्र भी ममताआसक्ति नहीं होती है। इस प्रकार श्रमण साधु पूर्ण रूप से असंग, अनासक्त और अकिंचन होते हैं तथा अपरिग्रह महाव्रत का सर्वथा पालन करते हैं। अन्य महाव्रतों की भावनाओं के सदृश अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँ जैनागम में व्यवहृत हैं। इन भावनाओं के चितवन से साधक का जीवन पूर्ण अनासक्त हो जाता है। वह जल में कमल की तरह संसार में रहकर भी निर्लिप्त रह सकता है। ये भावनाएँ इस प्रकार हैं (१) श्रोत्रेन्द्रिय संवर भावना, (२) चक्षुरिन्द्रिय संवर भावना, . (३) घ्राणेन्द्रिय संवर भावना, (४) रसनेन्द्रिय संवर भावना, (५) स्पर्शनेन्द्रिय संवर भावना। (आधार : स्थानांग ५; आचारांग, श्रु. २/१; प्रश्नव्याकरण, श्रु. २) प्रश्नावली १. महाव्रत से आप क्या समझते हैं? महाव्रती कौन हो सकता है? २. महाव्रत के कितने भेद हैं? ३. अहिंसा महाव्रत का पालन साधु कैसे करते हैं? संक्षेप में समझाइए। ४. साधु के दूसरे महाव्रत पर प्रकाश डालिए। ५. “साधु न किसी का अर्थ हरण करते हैं और न अधिकार हरण।" यह कथन किस महाव्रत से सम्बन्धित है? इस कथन पर महाव्रत के परिप्रेक्ष्य में प्रकाश डालिए। ६. ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन साधु किस प्रकार से करते हैं? ७. साधु के धर्मोपकरण-वस्त्र, पात्र और पुस्तकें आदि परिग्रह क्यों नहीं माने गए ८. पंच महाव्रतों की कौन-कौन-सी भावनाएँ कही गई हैं? प्रत्येक का नामोल्लेख कीजिए।
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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