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________________ उन्नीसवाँ बोल :ध्यान चार (ध्यान का स्वरूप और शुभ ध्यान की साधना) (१) आर्त्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान, (४) शुक्लध्यान। प्रत्येक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह आत्मा के उत्कर्ष और अपकर्ष का प्रधान कारण माना गया है। सामान्यतः मन की दो अवस्थाएँ हैं (१) चंचल अवस्था, (२) स्थिर अवस्था। ध्यान का सम्बन्ध मन की स्थिर अवस्था से है। ध्यान का अर्थ है मन को किसी एक विषय पर एकाग्र या स्थिर करना। ध्यान में मन की एकाग्रता तीनों योग से की जाती है अर्थात् ध्यान में मन, वचन व काय की समस्त वृत्तियों का निरोध किया जाता है। ध्यान के क्षेत्र में तीन बातें प्रमुख हैं-एक ध्येय, दूसरी ध्यान और तीसरी ध्याता। ये तीनों 'त्रिपुटी' के नाम से जानी जाती हैं। ध्यान करने वाला ध्याता कहलाता है। जिसका ध्यान या चिन्तन-मनन किया जाता है, वह ध्येय है। ध्याता जिस साधना से ध्येय को प्राप्त करने का प्रयास करता है वह साधना ध्यान है। मनुष्य का ध्येय अपरिमित है फिर भी उसकी दो सीमाएँ हैं-एक आत्मोन्मुख और दूसरी अनात्मोन्मुख। जब ध्येय आत्मोन्मुख होता है, तब ध्यान मोक्ष का कारण बनता है और जब ध्येय अनात्मोन्मुख होता है, तब ध्यान संसार का कारण बनता है। संसार का संवर्धन करने वाला ध्यान अशुभ है, त्याज्य है, हेय है; जबकि मोक्ष की ओर ले जाने वाला ध्यान शुभ है, ग्राह्य है, उपादेय है। इस दृष्टि से ध्यान के दो रूप हो जाते हैं-एक शुभ ध्यान और दूसरा अशुभ ध्यान। अशुभ ध्यान दो प्रकार के कहे गए हैं-एक आर्तध्यान और दूसरा रौद्रध्यान। शुभ ध्यान भी दो प्रकार का है-एक धर्मध्यान और दूसरा शुक्लध्यान। इस प्रकार ध्यान के कुल चार भेद हैं
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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