SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * १२६ * अठारहवाँ बोल : दृष्टि तीन - - - - - - - - - - - - - - - सम्यक्त्व को स्थिर रखने के लिए छह बातों के बारे में ज्ञान अवश्य होना चाहिए। जैसे (१) आत्मा है, (२) आत्मा द्रव्य रूप से नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा अपने कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा कर्मफल से मुक्त हो सकता है, (६) आत्मा के मुक्त होने के साधन हैं। सम्यक् दृष्टि निर्ग्रन्थ-साधु के विषय में कहा गया है कि ये सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त उत्पन्न हो सकते हैं। चौदह पूर्वधर संयमी मुनि पाँचवें देवलोक से नीचे के स्वर्गों में जन्म नहीं लेते, वे ब्रह्मलोक से सर्वार्थसिद्ध तक में ही पैदा होते हैं। जैनलिंग को धारण करने वाले किन्तु अन्तरंग से मिथ्या दृष्टि साधु मरकर नव ग्रैवेयक तक में जन्म ले सकते हैं, इससे ऊपर नहीं। अन्यलिंगी मिथ्या दृष्टि साधु अधिक से अधिक अच्युत स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं। सम्यक्त्वी को धर्मध्यान का अधिकारी माना गया है क्योंकि सम्यक्त्वी ही मुक्ति की ओर सदा अग्रसर रहता है। जिन मिथ्या दृष्टि जीवों में कषाय की अल्पता तथा तप-जप की प्रधानता रहती है। जिस मिथ्यात्वी में सत्य, दया, दान व करुणा आदि अनेक गुण हों; वे गुण पुण्य के, स्वर्ग-प्राप्ति के तथा भौतिक सुख-साधनों के कारण तो बन सकते हैं किन्तु मुक्ति के अर्थात् आत्मिक सुख के कारण नहीं बनते हैं। मिथ्यात्व और मिथ्या दृष्टि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए जैनाचार्यों ने कहा है कि मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय भाव है और मिथ्या दृष्टि मोहनीय कर्म का क्षयोपशम भाव है। मिथ्यात्व का अर्थ है-वस्तु का यथार्थ श्रद्धान न होना या वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान होना और मिथ्या दृष्टि का अर्थ है मिथ्यात्वी में पायी जाने वाली दृष्टि की विशुद्धि। __शास्त्रों में मिथ्यात्व के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए इसके पच्चीस भेद किए गए हैं। मिथ्यात्वी सम्यक्त्वी के परिणामों से बिलकुल विपरीत होते हैं। वे सदा भ्रम में रहते हैं। मिथ्यात्वी मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-एक अभिगृहीत मिथ्यात्वी और दूसरे अनभिगृहीत मिथ्यात्वी। पहले प्रकार के मिथ्यात्वी प्रबल
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy