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________________ भाषाटीकासमेतः । (५५) असत् वस्तुओंके निवृत्त होनेपर प्रत्यक्ष परमात्मा की आत्मरूप से सदा स्पष्ट प्रतीति होती है आत्मवस्तुके प्रतीत होनेबाद अहंकार आदि वस्तुसे सदा निरासही करना उचित है ॥ २०७ ॥ अतो नायं परात्मा स्याद्विज्ञानमयशब्दभाक् । विकारित्वाज्जडत्वाच्च परिच्छिन्नत्वहेतुतः ॥ २०८ ॥ दृश्यत्वाद्व्यभिचारित्वान्नानित्यो नित्य इष्यते । विज्ञानमयकोश आत्मा नहीं है क्योंकि विज्ञानमय कोश वृद्धिक्षय आदि विकारयुक्त है और जड है आवृत है दृश्य है व्यभिचारी अर्थात एकरूप से सदा वर्तमान नहीं रहता और अनित्य है आत्मामें सब हेतुसे भिन्न है अर्थात् आत्मा अविकारी चैतन्य अपरिच्छिन्न अर्थात् अनावृत नेत्रोंके अगोचर सर्वथा सर्वत्र एकरूपसे वर्तमान हैं इसलिये जो अनित्य विज्ञानमयकोश है सो नित्यपरमात्मा नहीं होसकता है ।। २०८ ॥ आनन्दप्रतिविम्बचुम्बिततनुर्वृत्तिस्तमोज्जृम्भिता स्यादानन्दमयः प्रियादिगुणकः स्वेष्टार्थलाभोदयः | पुण्यस्यानुभवे विभाति कृतिनामानन्दरूपः स्वयं भूत्वानन्दतियत्र साधुतनुभृन्मात्रः प्रयत्नंविना २०९॥ आनन्दका प्रतिबिम्ब से संयुक्त यह शरीर तमोगुण वृत्तिसे रहित आनन्दमय कोश होता है उसका प्रेम आदि गुण है अपने इष्टवस्तुओंका लाभ करता है पुण्यात्मा मनुष्योंके पुण्यका उदय होनेसे स्वयं आनन्दस्वरूप होकर शोभता है जिस आनन्दस्वरूपमें पवित्रशरीरधारी महात्मा सब विना प्रयत्न आनन्दको प्राप्त होते हैं ॥ २०९ ॥ आनन्दमयकोशस्य सुषुप्तौ स्फूर्तिरुत्कटा । स्वप्नजागरयोरीषदिष्ट संदर्शनादिना ॥ २१० ॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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