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________________ ( १०२ ) विवेकचूडामणिः । धुक् । एतद्दारमजस्रमुक्तियुवतेर्यस्मात्त्वमस्मात्परं सर्वत्रास्पृहया सदात्मनि सदा प्रज्ञां कुरु श्रेयसे ३७७ जिस पुरुषने चित्तको अपने वश करलिया उस पुरुषके सुखका जनक वैराग्यसे अधिक दूसरा कुछ नहीं है । यदि वह वैराग्य शुद्ध आत्मबोध संयुक्त होय तो स्वर्गीयराज्यका साम्राज्य सुखको देता है क्योंकि बोधयुक्त वैराग्य नितान्त मुक्तिरूप युवतिका द्वारहै इस लिये सब विषयोंकी इच्छा त्याग कर अपने कल्याणनिमित्त तुम वैराग्ययुक्तः होकर सच्चिदानन्द ब्रह्ममें बुद्धिको स्थिर करो || ३७७ ॥ आशां छिन्धि विषोपमेषु विषयेष्वेवैव मृत्योः कृतिस्त्यक्त्वा जातिकुलाश्रमेष्वभिमतिं मुञ्चातिदूरात्क्रियाः । देहादावसति त्यजात्मधिषणां प्रज्ञां कुरुष्वात्मनि त्वं द्रष्टास्य मनोऽसि निर्द्वयपरं ब्रह्मासि यद्वस्तुतः ॥ ३७८ ॥ विषसमान जो विषय हैं उन विषयोंमें जो आशा लगी है उसको त्याग करो क्योंकि यही विषयोंकी आशा मृत्यु होनेका उपायहै । और जाति कुल ब्रह्मचर्य आदि आश्रम इनका जो अभिमान है अर्थात् मैं ब्राह्मणजाति हूं और मेरा प्रतिष्ठित कुल है और मैं ब्रह्मचर्य आदिआश्रम में वर्त्तमानहूँ ऐसा जो अभिमान होरहा है इसको त्याग करो यज्ञ आदि काम्यक्रियाको भी त्याग करो अनित्य देहआ - दिमें जो आत्मबुद्धि हुई है उसे भी त्याग करो और अद्वैत परमात्मामें बुद्धि स्थिर रक्खो क्यों कि इन सब अनित्य वस्तुओंका तुम द्रष्टा हो वस्तुतः अद्वितीय परब्रह्म तुम्हीं हो ॥ ३७८ ॥ लक्ष्ये ब्रह्मणि मानसं दृढतरं संस्थाप्य बा न्द्रियं स्वस्थाने विनिवेश्य निश्चलतनुश्चोपेक्ष्य देहस्थितिम् । ब्रह्मात्मैक्यमुपेत्यतन्मयतया
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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