SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९८ ) विवेकचूडामणिः । त्याग कर फिर अपना स्वाभाविक गुणको प्राप्त होता है तैसे पुरुषका मनमें जो सत्त्व रज तमका मल है उसको ईश्वरका ध्यानसे त्यागकरि शान्त होकर यथार्थ अपना स्वरूपको पुरुष प्राप्त होता है ॥ ३६२ ॥ निरन्तराभ्यासवशात्तदित्थं पक्कं मनो ब्रह्मणि लीयते यदा । तदा समाधिः सविकल्पवर्जितः स्वतोऽद्रयानन्दरसानुभावकः || ३६३ || पूर्वोक्तप्रकारसे जो रातदिनका अभ्यास हैं उससे मन परिपक्क होकर जब परब्रह्म में लीन होजाता है तब अद्वितीय ब्रह्मानन्दरस के अनुभव करनेवाला निर्विकल्प समाधि स्वतः सिद्ध होता है ।। ३६३ ।। समाधिनानेन समस्तवासनाग्रन्थेर्विनाशोऽखिलकर्मनाशः । अन्तर्बहिः सर्वत एव सर्वदा स्वरूपविस्फूर्तिरयत्नतः स्यात् ॥ ३६४ ॥ इस निर्विकल्प समाधिके सिद्ध होनेसे सम्पूर्ण वासनाकी ग्रन्थि नष्ट होजाती है वासनाका नाश होनेसे सब कर्मोंका नाश होता है कर्मका नाश होनेपर विना परिश्रम अन्तर और बाह्य सर्वत्र सब कालमें ब्रह्मस्वरूपहीका प्रकाश होता है ॥ ३६४ ॥ श्रुतेः शतगुणं विद्यान्मननं मननादपि । निदिध्यासं लक्षगुणमनन्तं निर्विकल्पकम् ॥ ३६५॥ सब को त्याग करि गुरुमुखसे आत्मवस्तुको श्रवण करना उत्तम है श्रवणसेभी शतगुण अधिक मनन अर्थात् गुरुमुखसे सुनकर अपने मनमें विचार करना उत्तम है । मननसे भी लक्षगुण निदिध्यासन अर्थात आत्मवस्तुको विचारकरि सदा चित्तमें स्थिर करना उत्तम है निदिध्यासन से भी अनन्तगुण निर्विकल्पक अर्थात् चित्तमें आत्म वस्तुको स्थिर होनेपर फिर चित्तको दूसरे तरफ न लेजाना केवल परब्रह्मस्वरूपही सदा दीखना यह सबसे उत्तम है ॥ ३६५ ॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy