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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 45 इस प्रकार सौधर्मेन्द्र उचित शिला पर जाता है। जैसे वर्तमान चौबीसी के ऋषभ, अजित, पार्श्व, महावीर इत्यादि का अभिषेक अतिपांडुकंबला शिला पर हुआ। मेरु पर्वत की उचित शिला पर पहुँचने के पश्चात् सब इन्द्र अपने सेवक देवताओं से दर्पण, रत्नकरंडक, थाल, पात्रिका, पुष्पचंगेरी इत्यादि पूजा के उपकरण, चुल्लहिमवन्त, भद्रशाल, वैताढ्य, देवकुरु, उत्तरकुरु, वक्षस्कार आदि के फल, प्रधान गंध, सर्व औषधिप्रमुख वस्तुएँ मंगवाते हैं। किन्तु सर्वमुस्य मागध, वरदाम आदि तीर्थों के पद्म द्रह के जल से, गंगाप्रमुख नदियों के जल से एव क्षीरसमुद्र आदि समुद्रों के जल से कलश भरकर लाने की आज्ञा देते हैं। एक कलश पच्चीस (25) योजन ऊँचा, बारह (12) योजन चौड़ा तथा एक (1) योजन नाल वाला होता है। कलशों की आठ जातियाँ होती हैं____ 1. · सुवर्णमय (सोने का) 2. रौप्यमय (रूपे का) 3. रत्नमय (रत्नों का) प्रत्येक जाति के 8 4. सुवर्णरौप्यमय (सोने रूपे का)| हजार कलश 5. सुवर्णरत्नमय (सोने-रत्न का) | अर्थात् 6. रौप्यरत्नमय (रूपे रत्न का) | कुल 64,000 कलश। 7. सुवर्णरोप्यरत्नमय (सोना, रूपा| व रत्न का) 8. मृत्तिकामय (मिट्टी का) - इस प्रकार एक अभिषेक में 64,000 कलशों का अधिकार होता है। अच्युतेन्द्र के आदेश से अभिषेक शुरू होते हैं। सभी देव-देवियों के मिलाकर कुल 250 अभिषेक होते हैं। ____ अर्थात् 250 अभिषेक x 64,000 कलश = 1,60,00,000 कलश (एक करोड़ साठ लाख कलश) से अभिषेक होता है। वह भिक्षु है, जो जन्म-मरण को महाभयंकर जानकर नित्य ही श्रमण के कर्तव्य को दृढ़ करने वाले तपश्चरण में तत्पर रहता है। - दशवैकालिक (10/14)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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