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________________ वर्णन, विचार तथा भाव की दृष्टि से जो विविधता मिलती है उससे कवि की प्रतिभा का पर्याप्त ज्ञान हो जाता है । कर्मसिद्धान्त, तत्त्वज्ञान, कर्मकाण्ड तथा आचारशास्त्र के ग्रन्थों में हमें गंभीर विवेचन के अनुरूप जो शैली मिलती है वही खंडनात्मक 'संघपट्टक' में आकर विषयानुकूल तीक्ष्णता को अपना लेती है और साहित्यिक ग्रन्थों में सरसता और रोचकता । वह चरित काव्यों में समास - प्रधान है तो स्तोत्रों में व्यास प्रधान; संस्कृत काव्यों में समास - बहुला है । इनकी शैली की प्रमुख विशेषता है विविधता; जो सर्वत्र प्रकट होती है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्रित भाषाओं का प्रयोग, ३० से ऊपर छन्दों में लिखना और कभीकभी एक ही स्तोत्र में अनेक छन्दों अथवा विविध भाषाओं को लाना तो उनके वैविध्य प्रेम के द्योतक हैं ही, परन्तु प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतम् में उनकी यह विशेषता चरमसीमा तक पहुंची हुई प्रतीत होती है । अतः यहां पर इस कृति का सक्षिप्त परिचय समीचीन होगा । प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतम् यह एक श्लोकबद्ध प्रश्नावली 3 है। इसकी रचना जैसा कि प्रारंभ में ही कहा गया बुधजनों के बोध के लिये ही की गई है। इस प्रश्नावली में जो प्रश्न एकत्र किये गये हैं उससे स्पष्ट है कि उस समय की पण्डित - मण्डली कैसे उच्चकोटि के बौद्धिक मनोविनोदों की अपेक्षा रखती थी, क्योंकि इसमें जहां व्याकरण, निरुक्त, पुराण, दर्शन, " तथा व्यवहार' आदि विविध विषयों को लेकर प्रत्युत्पत्ति तथा प्रतिभाकी परीक्षा करने वाली पहेलियां हैं, वहां सुरुचि, सदाचार तथा सद्धर्म की भी कहीं उपेक्षा नहीं की गई है । कवि के प्रकाण्ड-पाण्डित्य एवं ज्ञान - गांभीर्य को प्रकट करने वाली विषयों की विविधता के साथ-साथ प्रश्नों में शैलीभेद से होने वाले प्रकारों को भी इसमें भलीभांति दिखाया गया है; जैसा कि निम्नलिखित सूची से भी पता चलेगाः १. अष्टदलकमलम् २. गतागताः ३. गतागतद्विर्गतः ४. गतागतचतुर्गतः ५. चतुर्गतः ६. चतुः समस्तः १. देखिये 'प्रथम जिनस्तव' जिसमें ११ छंद हैं। २. देखिये 'भावारिवारण स्तोत्र' में संस्कृत और प्राकृत ३. इस प्रश्नकाव्य में अन्तः प्रश्न, बहिः प्रश्न, अन्तः बहिः प्रश्न जातिप्रश्न, पृष्ठप्रश्न और उत्तरप्रश्नों का प्रयोग किया गया है । लक्षणों के लिये देखें, 'सरस्वतीकठाभरण' द्वितीय परि० प्रश्नोत्तरलक्ष पृ. ३०३-३०४ ४. कतिचिद् बुधबुद्ध यं वच्म्यहं प्रश्नभेदान् ५. प्र. १२२; ७४ ६४; ५६; इत्यादि ६. ७. प्र. ८; १८; १२; २६; १२४; १२५; इत्यादि प्र. २४; ३५; ३६ ३; इत्यादि प्र. ४; ६ ५; १३; २०; इत्यादि प्र. ६; १४; १३१; १२७; इत्यादि १२६ ] 5. ε. [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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