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________________ प्रमाणीकरण तथा उस पर स्थिरता करनी चाहिये । शिथिलाचारियों का आगमविरुद्ध आचरण और व्यवहार बहुजन सम्मत होने पर भी तिरस्करणीय है । यह प्रवृत्ति निन्द्य होने पर भी कतिपय आगम के जानकार आचार्यों ने इसका विरोध या निषेध क्यों नहीं किया है ? इसका समाधान पूर्वाचार्यों द्वारा शास्त्रों में दर्शित इस प्रसंग ( कथानक ) से किया है । दुषम सुषम नामक चौथे आरे के अन्त में किसी राजा ( पुण्यपाल ) ने आठ स्वप्न देखे और समवसरण में जाकर श्रमण भगवान् महावीर से इन स्वप्नों का फल पूछा । आठ स्वप्न निम्नांकित है : १. जीर्ण-शीर्ण शाला में स्थित हाथी, २. चपलता करता हुआ बन्दर, ३. कण्टकों से व्याप्त क्षीरवृक्ष, ४. कौआ, ५. सिंह मृत होने पर भी भयदायक, ६ . अशुचिभूमि में उत्पन्न कमल, ७. ऊषर क्षेत्र में बीजवपन, और ८. म्लान स्वर्णकलश | भगवान् महावीर ने इन स्वप्नों का फल अनिष्टकारक बतलाते हुये कहा किकाल के प्रभाव से भविष्य म देव मन्दिरो में शिथिलाचारी निवास करेंगे । वे विकथा करेंगे, आयतन विधि का श्याग कर अविधिमार्ग का अवलम्बन ग्रहण करेंगे, भग्न परिणाम वाले होंगे, और आगमज्ञ विरल साधुओं का समादर नहीं होगा । चपल बन्दर के समान अल्प सत्व वाले एवं चलितबुद्धि वाले सहयोगियों से प्रेरित होकर बहुत से गच्छ्वासी आचार्य भी निन्द्य कर्मानुष्ठान करने लगेंगे और उनकी अनुचित प्रवृत्ति से प्रवचन की हंसी होगी। उद्यत विहारी साधुओं की वे पार्श्वस्थ निन्दा करेंगे जिससे कि आगमज्ञ या तो निन्द्यानुष्ठान का आचरण करें या गच्छ को त्याग कर चले जावें । आगमज्ञ सुसाधुओं के विचरण योग्य सत्क्षैत्रों का अभाव सा हो जाने पर, अधिक त्रस्त होकर वे जनरंजन का मार्ग ग्रहण कर लेंगे । कलहकारी पार्श्वस्थों की वृद्धि होगी, अर्थात् कल्पवृक्षरूपी धर्म का स्थान बबूल-कण्टक वृक्ष ग्रहण करेगा । कौए के समान अतीव वक्र बुद्धि वालों से व्याप्त होने पर, शुद्ध प्रज्ञा वाले भी मूढ़ हो जायेंगे और उनके सम्पर्क से अधर्माचरण की ओर प्रवृत्त होंगे । सिंह के समान जिन-प्रवचन भी कुतीर्थिक एवं शिथिलाचारी श्वापदों के आघातों से व्याकुल होकर निष्प्राण-सा हो जायगा । ऐसे समय में प्रवचनप्रत्यनीक कीड़े सियार आदि इसे नोच-नोच कर खायेंगे। इस प्रकार के विकट समय में भी कतिपय आगमज्ञ क्रियाधारियों से ये अधम सियार सहमते रहेंगे । कमलोत्पत्ति तुल्य धर्मक्षेत्र एवं शुद्ध कुल वाले भी दुराचारियों की संगति से अपना स्वरूप त्याग देंगे । अधर्मरूपी क्षेत्र तथा नीचकुलीय निन्द्य व्यक्तियों की प्रतिष्ठा बढेगी । श्रद्धालु उपासक भी कुसमय और पार्श्वस्थों की संगति से, अधर्माचारियों को सुपात्र समझ कर दानादि देंगे । ज्ञान एवं चारित्र धारक भी दुस्संग के कारण बहुलता से हीनाचारी हो जायेंगे । प्रसंगोपरान्त ग्रन्थकार का मन्तव्य है कि — वल्लभ-भारती ] [ १०१
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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