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________________ समसत्तुबधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो । समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।। जिसे शत्रु और मित्रवर्ग समान है, जिसे सुख और दुःख में समता है, जो प्रशंसा और निन्दा में मध्यस्थ है, जिसे पाषाणखण्ड और सुवर्ण में समानता है तथा जीवन और मरण में जो समता रखता है वह श्रमण है। ऐसे श्रमणों को सम्बोधित करने के लिए ही आचार्यश्री ने श्रमणशतक की रचना की है। शतक में दिये गये सभी संबोधन एक से एक बढ़कर हैं। इसमें मूल में आर्या और पद्यानुवाद में वसन्ततिलका छन्द का प्रयोग हुआ है। साधु को विषयवासना से विरक्त रहने का उपदेश है. जलाशये जलोद्भवमिवात्मानं भिन्नं जलतोऽनुभव ।. प्रमादी माsये भव भव्य विषयतो विरक्तो भव ।। 35।। हे भव्य ? प्रमादी मत हो, विषय से विरत हो, जिस प्रकार कमल जल से भिन्न रहता है उसी प्रकार तँ भी अपने आपको विषय से भिन्न अनुभव कर । पद्यानुवाद देखिए जैसे रहे जलज जो जल से निराला, वैसे बना रह सदा जड़ से खुशाला । क्यों तूं प्रमत्त बनता, बन भोग- त्यागी, रागी नहीं बन कभी, बन वीतरागी ।। इसका एक संस्करण डॉ. प्रभाकर शास्त्री एम. ए., पी. एच. डी., डी. लिट्. अजमेर के सम्पादन में प्रकाशित हुआ था, उसकी प्रस्तावना आदि पठनीय है। निरंजनशतक ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव वाला आत्मा अनादि काल से अजंन - - कर्मकालिमा से दूषित हो रहा है। जिन्होंने रत्नत्रय की साधना से उस कर्मकालिमा को दूरकर दिया है और अपने ज्ञाता- द्रष्टा स्वभाव में लीन हो चुके हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी निरंजन कहलाते हैं। यह निरजन अवस्था अर्हन्त अवस्था पूर्वक होती है, इसलिए उन्हें भी निरंजन कहा जाता है। वे भी चार घातियाँ कर्मों का क्षय कर जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त हैं। इस शतक में इन्हीं सकल-निकल परमात्माओं का स्तवन है। स्तवन में भक्त ने भगवान् से एकरूपता प्राप्त करने का प्रयास किया है। शरीर और आत्मा में भेदविज्ञान हुए बिना निरंजन अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। अतः भक्त उनसे प्रार्थना करता है. कुरु कृपा करुणाकरकेवलं क्षिपविदीशविदं मयि केवलम् । तनुचितो प्रविधाय विभाजनं निजमये यदरं सुखभाजनम् ।। - हे करुणाकर ! हे अनन्तज्ञान के ईश ! मुझ पर कृपा करो, मुझे ज्ञान दो, जिससे मैं शरीर और आत्मा का विभाजन कर सकूं। हिन्दी पद्य भी देखिये- हे ईश ! धीश ! मुझमें बल बोधि डालो, कारुण्यधाम करुणा मुझ में दिखाओ । देहात्म में वश विभाजन जो करूंगा, शीघ्रातिशीघ्र सुखसागर तो बनूंगा ।।
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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