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________________ १३ "सिग्मवहर स्तोत्र ॥ ( पदार्थ ) ( अभय ) निर्भयता ( देव ) देवत्र और ( पहुत्त ) प्रभुत्व को (दायगे ) देनेवाले ऐसे ( गुरु ) अंज्ञानरूपअन्धकार को रोकनेवाले ( जिण ) जिनभगवानके (वल्लह ) सुन्दर ( पाए ) चरणों को (वंदे ) नमस्कार करताहूं अथवा ( अभयदेव) अभयदेवसूरिको (पहुत्व) प्रभुत्व (दायगे ) देनेवाले ऐसे (गुरु जिणवल्लहपाए ) गुरु जिनवल्लभसूरि के चरणोंको ( वंदे ) मैं नमस्कार करताहूं. वैसेही ( वद्धमाणतित्थस्स ) वर्द्धमानस्वामीके तीर्थकी ( बुढिकए ) वृद्धिकेहेतु ( जिणचन्द ) जिन चन्द्रसूरि और ( जईसर ) जिनेश्वरसूरि को (वंदे ) नमस्कार करताहूं ॥ १२ ॥ ( भावार्थ ) निर्भयता देवत्व और प्रभुत्वको देनेवाले ऐसे अज्ञानरूपअन्धकारको रोकनेवाले जिनभगवान के सुन्दरचरणोंको मैं नमस्कार करता हूं. अथवा अभय देवसूरि को दिया है प्रभुत्र जिन्होंने ऐसे गुरु जिनवल्लभ सूरिके चरणोंको मैं नमस्कार करताहूं और वर्द्धमान स्वामीने स्थापन किये हुए चतुर्विधसंघकी वृद्धिके हेतु जिनचन्द्र और जिनेश्वर सूरिको नमस्कारकरता हूं | १२|
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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