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________________ गुरुपारंतव्यस्तोत्रम् ॥ (पदार्थ) (पडिवज्जिय ) अङ्गीकार किया है (जिणदेवो ) जिनदेव जिनने ऐसे ( देवायरिउ ) देवाचार्य ( दुरंत ) दुष्ट है परिणाम जिसका ऐसे ( भव ) संसारको (हारि ) हरण करने वाले (सिरिने मिचंदसूरि ) श्रीनेमिचन्द्रसूरि और ( सुगुरु ) अज्ञानरूप अंधकारको रोकनेमें समर्थ ऐसे ( उज्जोयणसूरि ) उतनसूरि विजयको प्राप्त होओ ॥ ७ ॥ (भावार्थ) आत्मकल्याणके हेतु अङ्गीकार किया है जिनदेव जिनने ऐसे देवाचार्य और दुष्ट है परिणाम जिसका ऐसे संसारको हरण करनेवाले श्रीनेमिचन्द्रसूरि और अज्ञानरूप अंधकारको रोकनेमें समर्थ ऐसे उद्योतनसूरि विजयको प्राप्त होओ ॥ ७॥ ॥ अथ वर्धमानसूरिस्तुतिमाह ॥ ॥ गाथा ॥ सिरिवद्धमाणसूरि पयडीकयसूरि मंतमाहप्पो । पडिहयकसायपसरो सरयससंकुव्वसुहजणउँ ॥८॥
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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